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समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् । ७९
अन्वयार्थः--(चिर) चिरचिरकाल (दुःजमाणस्स) विहरतः प्रामानुग्राम गच्छतः (१३) स्व (दाणि) इदानीं (दोसो) दोषः (को) कुतः नैवास्तिदोषः (इच्चेवं) इत्येवं क्रमेण (नीवारेण) नीवारेण ब्रीहिविशेषकणदानेन (सूयरंव)
करमिच (निमंते ति) निमंत्रयंति-भोगबुद्धि कारयन्तीति ॥१९॥ ___टीका-हे मुनिश्रेष्ठ ! 'चिर' चिरं बहुकालम् 'दुइज्जमाणस्स' विहरतःसंयमानुष्ठानपूर्वकं ग्रामानुग्रामं विहरतस्तव 'दाणि' इदानीमेतस्मिन् समये (कुतो)
पुनः कहते हैं-'चिरं दुइजनमाणस्म' इत्यादि।
शब्दार्थ-हे मुनि श्रेष्ठ चिरं-चिरम्' बहुत काल से 'दइज्जमा जस्त-विहरत: संयम का अनुष्ठानपूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करते हुए 'तब-तब आप को 'दाणि-इदानों इस समय 'दोसो-दोषा' दोष 'कओ-कुना कैसे हो सकता है 'इच्चे-इत्येवम्' इस प्रकार 'निवारेण-नीवारेण' चावल के दानों का लोभ दिखाकर 'सूयरंव-सूकरमिय' सूकर को जैसे लोग फसाते हैं इसी प्रकार मुनि को 'निमंतेति-निमंप्रयन्ति' भोग भोगने के लिए निमंत्रित करते हैं ॥१९॥ ___ अन्वयार्थ-चिरकाल तक संयम विहार करने वाले तुम्हें अब दोष कैसे लग सकता है ? इस प्रकार भोगों के लिए आमंत्रित करके वे लोग साधु को उसी प्रकार लुभाते हैं, जैसे चावल के कणों से शूकर को लुभाया जाता है ॥१९॥
qणी तेयो तने 3 छ ?-'चिरं दूइज्जमाणस्स' त्या
शाय- मुनिश्रेष्ठ 'चिरं-चिरम्' म ein mथी 'दूइज्जमाणस्स -विहरतः' यमन अनुष्ठान : श्राभानुश्राम विहार ४२i Rai 'व-तव' मापने दाणि-इदानों' मा समये 'दोसो-दोषः' ५ 'कओ- कुतः वी शते या
छ १ 'इच्व- इत्येवम्' मा परे 'नीशरेण-नीवारेण' योमाना हाया माना सोस हेमान 'सूयरंव-सूकरमित्र' सूने थी शत माणुसे। सावछतेवा मारे मुनिन निमंति-निमंत्रयन्ति' मे-पाना भाट निभत्रित ४२ छ.११८ - સૂવાર્થ –દી કાળથી આપ સંયમની આરાધના કરી રહ્યા છે, તે હવે આપને કેઈ પણ દોષ પશી શકે તેમ નથી ! જેવી રીતે ચાખાના દાણા પાથરી દઈને શૂકરને (સૂવરને) લલચાવવામાં આવે છે, એ જ પ્રમાણે લેકે દ્વારા સાધુને ભેગોમાં આસક્ત કરવા પ્રયત્ન કરાય છે. ૧લા
ટીકાઈ– તેઓ તેને કહે છે) હે મુનિશ્રેષ્ઠ ! આપે ચિરકાળ પર્યા,
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