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सूत्रकृताङ्गसूत्र पुनरप्याह-'तत्तेण' इत्यादि। मूलम्-तत्तेर्ण अणुसिहा ते अपडिन्नेन जाणेया।
ण एस णियएं मग्गे असमिक्खं वइ किई ॥१४॥ छाया--तत्त्वेन अनुशिष्टास्ते अप्रतिज्ञेन जानता।
न एप नियतो मार्गोऽसमीक्ष्य वाक् कृतिः ॥१४॥ अन्वयार्थ--(अपडिन्नेण) अप्रतिक्षेन रागद्वेषरहितेन (जाणया) जानता हेयोपादेयपरिच्छेदकेन (ते) तेऽन्यदर्शनावलंबिनः (तत्तेण अणुसिट्ठा) तत्त्वेनानुका भी त्याग कर देना श्रेयस्कर नहीं है, किन्तु व्रण (घोव) का खुजलाने के समान दोषजनक ही है ॥१३॥
और भी कहते हैं-'तत्तेण' इत्यादि ।
शब्दार्थ-'अपडिन्नेन-अप्रतिज्ञेन' राग द्वेष से राहत ऐसे तथा 'जायणा-जानता' जो हेप एवं उपादेय पदार्थों को जानता हैं यह साधु पुरुष 'ते-ते' अन्य दर्शन वालों को 'तत्तेग अणुसिहा-तत्वेनानुशिष्टाः' यथावस्थित अर्थ की शिक्षा देते हैं कि 'एसमग्गे-एषो मार्गो' आप लोगों ने जिस मार्ग का अनुसरण किया है वह मार्ग 'ण नियए-न नियतः' युक्तियुक्त नहीं हैं 'वई-वाक' तथा आप ने जो सम्यक दृष्टि साधुओं के प्रति आक्षेप वचन कहा है वह भी 'असमिक्ख-असमीक्ष्य' विना विचारे ही कहा है किइ-कृतिः' तथो आप लोग जो कार्य करते हैं वह भी विवेकशून्य है ॥१४॥ . अन्वयार्थ--रागद्वेष से रहित तथा हेय और उपादेय का ज्ञाता કર્યા વિના સંયમનાં ઉપકરણને પાત્ર આદિને પણ ત્યાગ કરે શ્રેયસ્કર નથી, પણ ત્રણને (ગુમડાને) ખંજવાળવા સમાન દેષજનક છે. ગાથા ૧૩
uी सू२ ४ छ -'तत्तेग इत्याहि
शा-'अपडिन्नेन-अप्रतिज्ञेन' राषथी २डित सेवा तथा 'जायणाजानता'२ रुय भने उपाध्य पान न छे, म साधुपु३५ 'हे-ते' मlan अन्य शनवामाने 'तत्तण अणुसिट्रा- तत्वेनानुशिष्टाः' यथास्थित माना शिक्षा छ 'एस मग्गे-एषो मार्गो' A५ ले भागनु अनुस२७] यु छ त भाग 'ण नियर-न नियतः' युतियुत नथी, 'वई-वाक्' qयन से हैत ५५ 'असमिक्ख-असमीक्ष्य' २ पियायु ह्यु छ किइ-कृतिः ' તથા આપ લેકે જે કાર્ય કરે છે તે પણ વિવેક શૂન્ય છે. ૧૪
સૂવા–રાગદ્વેષથી રહિત અને હેય તથા ઉપાદેયના જાણકાર મુનિઓએ
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