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समयार्थयोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीगरीषहनिरूपणम् २२३ मुच्यते, तथा साधुरपि स्त्रीवशमुपगतः पुन न तदधिकारान्निवर्तते। ततो न विमुच्यते इति भावः ॥९॥ मूलम्-अहे से ऽणुतप्पई पच्छा भाचा पायसं व विसमिस्सं।
एवं विवेगमादाय संबासो न वि कप्पए दैथिए ॥१०॥ छापा~-अथ सोऽनुप्यते पश्चात् भुक्त्वा पायसमिव विपमिश्रम् ।
एवं विवेकमादाय संबासो नापि कल्पते द्रव्ये ॥१०॥ __ अन्ययार्थ:-(इ) अब (से) सः-साधुः (पच्छा) पश्चात् (अणुतुप्पई) अनुतप्यते-पश्चातापं करोति (विसमिस्स) विभिश्रम् (पायसं) पायसमित्र (भोचा) नहीं पाता, उसी प्रकार स्त्री के वश में पडा हुमा साधु भी फिर उसके पंजे से नहीं छुट पाता है ॥९॥
शब्दार्थ--'अह-अध' स्त्रीके वशवी होने के अनंतर 'से-सः' वह साधु पच्छा-पश्चात् पीछे से 'अणुतपई-अनुन प्यते' पश्चात्ताप करता है 'विसमिर-विषमिश्रम्' जैसे विषसे मिला हुआ 'पायसं-पायसम्' पायस-दूधपाक 'भोच्चा-भुक्त्वा' खाकर मनुष्य पश्चात्ताप करता है "एवं-एवम्' इस प्रकार 'विवेगमादाय-विवेकमादाय' विवेक को ग्रहण करके 'दथिए-द्रव्यः' मुक्तिगमन के योग्य साधु को उनके साथका संवासो-संगास संबास-अर्थात् एकस्थान में रहना 'नधि कप्पए-नापिकल्पते योग्य नहीं है ॥१०॥ ___ अन्वयार्थ-तदनन्तर वह साधु पश्चात्ताप करता है जैसे विषमिश्रित खीर खाने वाला पश्चाताप करता है। इस तथ्य को जानकर मुक्तिगमन के योग्य साधु स्त्रियों के साथ निवास न करे ॥१०॥ થઈ શકતું નથી, એજ પ્રમાણે સ્ત્રીના મેહપાશમાં જકડાયેલે સાધુ પણ તેના ફદામાંથી છૂટી શકતું નથી. મલા
श -'अह-अथ' खीने १२ थया ५छी से-सः' ते साधु 'पच्छा-पश्चात्'
थी 'अणुतप्पइ-अनुतप्यते' पश्चात्ता५ ४२ छ. 'विस मिस्स-विषमिश्रम' विषयी भणे पायसं-पायसम्' या 'भोचा-भुक्त्वा' मान मनुष्य पश्चाता५ २ २. 'एवं-एवम्' से शत विवेगमादाय-विवेकमाक्षय' लिवन मनुसरीन 'दविए-द्रव्यः' भुति गमन ४२वाने योग्य साधुने तीन साथैन। 'संवासो-संवासः' सपास मत से स्थानमा २ 'नवि कप्पइ-नापि कल्पते' યોગ્ય નથી. ૧૦
સૂત્રાર્થ–જેવી રીતે વિષયુક્ત અન્ન ખાનારને પશ્ચાત્તાપ થાય છે, એ જ પ્રમાણે સ્ત્રીના મેહપાશમાં બંધાયેલા સાધુને પશ્ચાત્તાપ કર પડે છે. આ
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