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समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ.१ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् - २६७
'तप्ताङ्गारसमा नारी घृतकुम्भसमः पुमान् ।
तस्माद् धृ च वह्नि च नैकत्र स्थापये दुधः॥१॥ इति ॥२६॥ स्त्रीसानिध्ये दोपान प्रदर्य तत्समधननितं दोषं दर्शयितुमाह
'जतुकुंभे इत्यादि। मूलम्-जंतुकुंभे जोइ उवगूढे आँसुऽभितत्ते णासमुंवयाइ।
एवित्थियाहि अणगारा संवासेण णासमुवयंति ॥२७॥ छाया--जतुकुम्मा ज्योतिरुणगूढ आश्चभितप्तो नाशमुपयाति ।
एवं स्त्रीभिरनगाराः संवासेन नाशमुपयान्ति ॥२७॥ __ स्त्री प्रज्वलित अंगारेके समान हैं और पुरुष घृत के घडे के समान है । अतएव बुद्धिमान् पुरुष वृन और अग्नि को एक स्थान पर स्थापित न करे ॥२६॥
स्त्री की समीपता से होने वाले दोनों को दिखलाकर उसके संबन्ध से होने वाले दोष दिखाने के लिये कहते हैं-'जतुकुंभे' इत्यादि।
शब्दार्थ--'जोइ उवढे जतुकुंभे-ज्योतिरुपगूढो जतुकुम:' जैसे अग्नि से स्पर्श किया हुआ लाग्न का घडा 'आसुभिनत्ते णासमुवयाइआश्चभितप्लो भाशमुपयाति' शीघ्र तप्त होकर नष्ट हो जाता है 'एवंएवं इसी प्रकार इस्थिपाहि-स्त्रीभिः' त्रियों के 'संवासेण-संवासेन' सहवास से 'गारा-अनगाराः' अनगार-साधु ‘णासमुवयंति-नाशमुपयान्ति' नष्ट हो जाते हैं अर्थात् चारित्र से पतित हो जाते हैं ।।२७।।
“ી પ્રજવલિત અંગારા સમાન છે અને પુરુષ ઘીના ઘડા સમાન છે. તેથી બુદ્ધિમાન પુરુષે ઘી અને અગ્નિને એક જ જગ્યાએ એકઠાં થવા દેવા જોઈએ નહીં” ર૬
સ્ત્રીની સમીપતાને કારણે ઉદ્ભવતા દેને પ્રકટ કરીને હવે સૂત્રકાર तेना परिणामी ५४८ ४३ छ- जतुकुंभे' पाहि---
शय - 'जोइउवगूढे जतुकुंभे-ज्योतिरुपगूढो जतुकुं:” म नया २५शायaaruन ! 'आसुभित्तत्ते णासमुक याइ-आश्वभितप्तो नाशमुपयाति'
तिथी तपीन नाश पामे छे'एवं-एवम्' या रीते 'इस्थियाहिं-स्त्रीभिः' लियाना 'संवासेण-संवसेन' सहवासथी 'अणगारा-अनगाराः' मना-सा५ 'णासमुवयंति-नाशमुआयान्ति' नाश ५. छ. अर्थात् यात्रियी पतित यह काय छ, ।। २७॥
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