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समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.४ उ.१ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् २४ शङ्कायां सूत्रकार आह--'वहये गिहाई' इत्यादि। मूलम्-बहवे गिहाई अर्वहटु मिस्तीभावं पत्थुया य एंगे।
धुवमग्गनेव पर्वयंति वाथा वीरियं" कुसीलाणं ॥१७॥ छाया--बहको गृहाणि अवहृत्य मिश्रीमावं प्रस्तुताश्च एके ।
. ध्रुवमार्गमेव प्रवदन्ति वाचा वीर्य कुशीलानाम् ॥१७॥ अन्वयार्थ:-(बहवे एगे) बहब एके (गिहाई अवहट्ट) गृहाणि अवहृत्य परित्यज्य (मिस्सीभावं पत्थुया) मिश्रीमावं प्रस्तुताः-गृहस्थ संबलितसाधुमार्ग स्वीकृत्य अंगीकार करके भी कोई स्त्रीसम्पर्क करता है ? किसीने किया है ? कोई करेगा? इसका उत्तर देते हुए सूत्रकार कहते हैं 'यहवे गिहाई' इत्यादि। __ शब्दार्थ--'बहवे एगे-पहय एके' बहुत से लोग 'गिहाई अवहहुगृहाणि अपहृत्य' घरसे निकल कर अर्थात् प्रत्रजित होकर भी 'मिस्सी. भावं परथुया-मिश्रीभावं प्रस्तुताः' मिश्रमार्ग अर्थात् कुछ गृहस्थ और कुछ साधुके आचारको स्वीकार कर लेते हैं 'धुवमग्गमेव पवयंति-- ध्रुवमार्गमेव प्रवदन्ति' और वे कहते हैं कि-हमने जो मार्गको अनुः ठान किया है वह मार्ग ही मोक्ष का मार्ग है 'वायावीरियं कुसीलाणंवाचा वीर्य कुशीलानाम्' कुशीलों के वचन में ही शूरवीरता है अनुः ष्ठान में नहीं ॥१७॥
अन्वयार्थ--बहुत से लोग गृहों (घरों) का त्याग करके मिश्र. भाव को प्राप्त होते हैं। अर्थात् वे गृहस्थ का और साधु का मिश्रित અંગીકાર કર્યા બાદ પણ કઈ સાધુ સ્ત્રીસંપર્ક કરે છે ખરે? શું કેઈએ કર્યો છે ખરો? શું કોઈ કરશે ખરાં ? આ પ્રશ્નનો ઉત્તર આપતા સૂત્રકાર કહે છે કે
'बहवे गिहाई' यादि
साथ-'बहवे एणे- बहाव ' घ! सो 'गिहाई अवहट्ट-गृहाणि अपहृत्य' धेरथी नीजान अर्थात् प्रत्रत ५४ने ५] 'मिस्सोभावं पत्थुया-मिश्रीभावं प्रस्तुताः' मिश्रभाग अर्थात् - १९३५ भने ४७४ साधुन। मायने स्वी४.२ ४२री से छे, 'धुवमगमेव पवयंति-भूत्रमार्गमेव प्रवदन्ति' अन ते ४ છે કે-અમે જે માર્ગનું અનુષ્ઠાન કર્યું છે, તે માર્ગ જ મોક્ષના માર્ગ છે. 'वायाचीरियं कुसीलाणं-वाचावीर्य कुशीलानाम्' शबाने क्यनमा । शूरवी२५४. छे. अनुष्ठानमा नही. ॥१७॥
સૂત્રાર્થ–ઘણું લેકે ગૃહોનો ત્યાગ કરીને મિશ્રવ્યવહારરૂપ મિશ્રીભાવથી યુક્ત થતા હોય છે. એટલે કે દીક્ષા ગ્રહણ કર્યા બાદ સાધુ અને ગૃહસ્થના
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