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जैन यात्रा-साहित्य
प्रो. राजाराम जैन
यात्रा साहित्य इतिहास एवं संस्कृति की अमूल्य विरासत है। प्राचीन जैन-साहित्य में 'पर्यटन' शब्द का प्रयोग दृष्टिगोचर नहीं होता। उसके स्थान पर यात्रा, विहार, हिण्ड या हिण्डन तथा भ्रमण जैसे शब्द-प्रयोग मिलते हैं। इनमें से हिण्ड या हिण्डन शब्द का अर्थ है-रुई के वायु-प्रेरित फाहे के समान निरुद्देश्य ही इधर-उधर भटकना। "वसुदेवहिण्डी" (संघदास-धर्मदास गणि कृत, चौथी सदी ईस्वी के आसपास) इसका अच्छा उदाहरण है। 'विहार' शब्द का प्रयोग तपस्वी-मुनिवरों के एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमनागमन के लिए सुनिश्चित है। 'भ्रमण' शब्द-प्रयोग प्रायः सामान्यजनों के इतस्ततः सामान्य गमनागमन के लिए प्रयुक्त मिलता है। पर्यटन-शब्द, जहाँ तक मुझे जानकारी है, अधिक प्राचीन नहीं है और उसका प्रयोग, विरसता अथवा एकरसता के वातावरण के परिवर्तनार्थ, किंचित्कालीन मनोरंजन-हेतु किया जाता है। इसे 'पिकनिक' भी कहा जाता
__ यात्रा-शब्द-प्रयोग अत्यन्त प्राचीन है, जो कि किसी बड़े लक्ष्य की प्राप्ति के प्रसंग में प्रस्थान करने के लिए प्रयुक्त किया गया प्राप्त होता है। इस दृष्टि से जैनाचार्य-लेखकों ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं प्राचीन हिन्दी में प्रासंगिक रूप से अनेक रोचक-यात्राओं के वर्णन प्रस्तुत किए हैं। एतद्विषयक कुछ स्वतन्त्र-रचनाएँ भी उपलब्ध हैं।
वस्तुत: मूल-ग्रन्थों के अध्ययन और व्याख्यानादि सुनने से सैद्धान्तिक-ज्ञान तो प्राप्त होता है, किन्तु उसमें समग्रता आती है-मनोनुकूल विविध-विषयक केन्द्रों की अनुभवजनक यात्रा करके संवेदनशील व्यक्ति विभिन्न विशिष्ट केन्द्रों में जाकर वहाँ के वस्तुगत तथ्यों का साक्षात्कार कर यथार्थता का अनुभव करता है, जिससे उसमें अन्तर्निहित प्रतिभा-शक्ति को नई ऊर्जा मिलती है और कल्पना-शक्ति स्फुर्यमान होती है। इस प्रकार पूर्वार्जित सैद्धान्तिक ज्ञान और यात्राओं से अर्जित व्यावहारिक या प्रायोगिक ज्ञान के समन्वय से संस्कृति, इतिहास एवं साहित्य के अनेक प्रच्छन्न-पक्षों के उद्घाटन में पर्याप्त सहायता मिलती है। इस प्रकार की यात्रा को ही सफल माना जाता है।
सामाजिक-जीवन में यात्राओं का विशेष महत्त्व होता है। विविध विशिष्ट स्थलों या प्रदेशों में जाकर अपनी-अपनी रुचि के अनुसार अभीप्सित जानकारी, यात्राओं के बिना
जैन यात्रा-साहित्य : 83
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