Book Title: Jain Dharm Parichay
Author(s): Rushabhprasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 847
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिन्दी जैन साहित्य प्रो. (श्रीमती) पुष्पलता जैन हिन्दी साहित्य की एक लम्बी परम्परा है और उस परम्परा से जैनाचार्य आदिकाल से ही जुड़े रहे हैं। हिन्दी की लगभग सभी प्रवृत्तियों के वे जनक और पुरोधा भी हैं। हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में भी उनका अनूठा योगदान अविस्मरणीय है। उनके साहित्य में एक ओर जहाँ आलंकारिकता, साहित्यिकता और शान्तरस-प्रवणता मुखरित होती रही है, वहीं वे विशुद्ध पुरुषार्थवादी अर्थात् आत्मवादी, ध्यानवादी, क्रियावादी, कर्मवादी और निर्वाणवादी भी रहे हैं। उन्होंने उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप त्रिपदी की पृष्ठभूमि में वस्तु की यथार्थवत्ता को परखा, रत्नत्रय का आस्वाद चखा, आसव-बन्ध की प्रक्रिया समझी और संवर-निर्जरा के माध्यम से परमात्मपद प्राप्ति की ओर अपने चरण बढ़ाये। वैभाविक परिणति से मुक्त होकर स्वाभाविकता, समरसता, समता और सहजता से भरे आचरण की महावीथि पर उन्होंने पद-न्यास किया। जैनाचार्यों का समूचा हिन्दी साहित्य कोऽहं- से 'सोऽहं' की यात्रा की ओर बढ़ता हुआ दिखाई देता है। यही उनका सांस्कृतिक वजूद है और यही उनका योगदान है। प्रस्तुत आलेख में हम हिन्दी साहित्य परम्परा को जैनाचार्यों का योगदान हिन्दी के आदिकाल और मध्यकाल की परिधि में रहकर प्रस्तुत करने का प्रयत्न करेंगे। आदिकालीन हिन्दी जैन काव्य-प्रवृत्तियाँ इतिहास का मध्यकाल संस्कृत और प्राकृत की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद बाण और श्रीहर्ष तक कान्यकुब्ज संस्कृत का प्रधान केन्द्र रहा। इसी तरह मान्यखेट, माहिष्मती, पट्टण, धारा, काशी, लक्ष्मणवती आदि नगर भी इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। इस काल में संस्कृत साहित्य पांडित्य-प्रदर्शन तथा शास्त्रीय वाद-विवाद के पचड़े में पड़ गया। वहाँ भावपक्ष की अपेक्षा कला पक्ष पर अधिक जोर दिया गया। इसे ह्रासोन्मुख काल की संज्ञा दी जाती है। उत्तरकाल में उसका कोई विकास नहीं हो सका। इस युग में जिनभद्र, हरिभद्र, शीलांक, अभयदेव, मलयगिरि, हेमचन्द्र आदि का 838 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only

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