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चिन्तामणि जैन काव्य हैं। उसके पाँच लघुकाव्य भी जैन काव्य हैं-नीलकेशि, चूडामणि, यशोधर कावियम, नाग कुमार कावियम तथा उदयपान कथै। इसी तरह व्याकरण, छन्द शास्त्र, कोश आदि क्षेत्रों में भी जैन कवियों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। ___ कर्नाटक प्रदेश तो जैनधर्म का गढ रहा है। आचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समन्तभद्र, अकलंक, सोमदेव आदि शताधिक आचार्य यहीं हुए हैं। कन्नड जैन कवियों में पम्प, पोन्न, रन्न, जिनसेन, चामुंडराय, श्रीधर, शान्तिनाथ, नागचन्द्र, नेमिचन्द्र, वोप्पण, आचण्ण, महबल आदि विशेष उल्लेखनीय हैं जिन्होंने कन्नड साहित्य की सभी विधाओं को
आदिकाल से ही समृद्ध किया है। इसी तरह मराठी साहित्य के प्राचीन जैन कवियों में जिनदास, गुणदास, मेघराज, कामराज, गुणनन्दि, जिनसेन आदि के नाम अविस्मरणीय हैं।
गुजराती का भी विकास अपभ्रंश से हुआ है। 12वीं शती से अपभ्रंश और गुजराती में पार्थक्य दिखाई देने लगता है। गुजरात प्रारम्भ से ही जैन संस्कृति का केन्द्र रहा है। जैन कवियों ने रासो, फागु, बारहमासा, कक्को, विवाहलु, चच्चरी, आख्यान आदि विधाओं को समृद्ध करना प्रारम्भ किया। हिन्दी साहित्य की दृष्टि से शालिभद्रसूरि (1185 ई.) का भरतेश्वर बाहुबलिरास प्रथम प्राप्य गुजराती कृति है। उसके बाद धम्मु का जम्बुरास, विनयप्रभ का गौतमरास, राजशेखर का नेमिनाथ फागु आदि प्राचीन गुजराती साहित्य की श्रेष्ठ कृतियाँ हैं जिन्हें हिन्दी जैन साहित्य से जोड़ा जाता है। मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियाँ
जैन कवियों और आचार्यों ने मध्यकाल की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में पैठकर अनेक साहित्यिक विधाओं को प्रस्फुटित किया है। उनकी इस अभिव्यक्ति को हम निम्नांकित काव्य रूपों में वर्गीकृत कर सकते हैं
1. प्रबन्ध-काव्य-महाकाव्य, खंडकाव्य, पुराण, कथा-चरित, रासा, सन्धि आदि। 2. रूपक-काव्य-होली, विवाहलो, चेतनकर्मचरित आदि। 3. अध्यात्म और भक्तिमूलक-काव्य-स्तवन, पूजा, चौपई, जयमाल, चांचर,
फागु, चूनड़ी, वेली, संख्यात्मक, बारहमासा। आदि। 4. गीतिकाव्य, और 5. प्रकीर्णक काव्य-रीतिकाव्य, कोश, आत्मचरित, गुर्वावली आदि। मध्यकालीन जैन काव्य की इन प्रवृत्तियों को समीक्षात्मक दृष्टिकोण से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि सभी प्रवृत्तियाँ मूलत: आध्यात्मिक उद्देश्य को लेकर प्रस्तुत हुई हैं, जहाँ आध्यात्मिक-उद्देश्य प्रधान हो जाता है, वहाँ स्वभावतः कवि की लेखनी आलंकारिक न होकर स्वाभाविक और सात्त्विक हो जाती है। उसका मूल उत्स रहस्यात्मक अनुभव और भक्ति रहा है।
हिन्दी जैन साहित्य :: 849
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