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1. प्रबन्ध-काव्य
प्रबन्ध-काव्य के अन्तर्गत महाकाव्य और खंडकाव्य दोनों आते हैं। जहाँ तक रासोकाव्य परम्परा का सम्बन्ध है, उसके मूल प्रवर्तक जैन आचार्य ही रहे हैं। जैन रासो काव्य गीत-नृत्य-परक अधिक दिखाई देते हैं। इन्हें हम खंडकाव्य के अन्तर्गत ले सकते हैं। कवियों ने इनमें तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों और आचार्यों के चरित का संक्षिप्त-चित्रण प्रस्तुत किया है। कहीं-कहीं ये रासो उपदेश-परक भी हुए हैं।
इनमें साधारणतः पौराणिकता का अंश अधिक है, काव्य का कम । संयोग-वियोग का चित्रण भी किया गया है, पर विशेषता यह है कि वह वैराग्यमूलक और शान्तरस से आपूरित है। आध्यात्मिकता की अनुभूति वहाँ टपकती हुई दिखाई देती है। राजुल और नेमिनाथ का सन्दर्भ जैन कवियों के लिए अधिक अनुकूल-सा दिखाई दिया है। जैन प्रबन्ध काव्यों को हम समासत: इस प्रकार आलेखित कर सकते हैं-1. पुराण काव्य (महाकाव्य और खंड काव्य), 2. चरित काव्य, 3. कथा काव्य और 4. रासो काव्य। 2. पौराणिक-काव्य ____ पौराणिक काव्य में महाकाव्य और खंड काव्य सम्मिलित होते हैं। ऐसे ही कुछ महाकाव्यों और खंडकाव्यों का यहाँ हम उल्लेख कर रहे हैं। उदाहरणार्थ-ब्रह्मजिनदास के आदिपुराण और हरिवंशपुराण (वि. सं. 1520), वादिचन्द्र का पांडवपुराण (वि. सं. 1654), शालिवाहन का हरिवंशपुराण (वि. सं. 1695) बुलाकीदास का पांडवपुराण (वि. सं. 1754, पद्य 5500), खुशालचन्द्रकाला के हरिवंशपुराण, उत्तरपुराण और पद्मपुराण (सं. 1783), भूधरदास का पार्श्वपुराण (सं. 1789), नवलराम का वर्तमान पुराण (सं. 1825), धनसागर का पार्श्वनाथपुराण (सं. 1621), ब्रह्मजित का मुनिसुव्रतनाथपुराण (सं. 1645), वैजनाथ माथुर का वर्धमानपुराण (सं. 1900), सेवाराम का शान्तिनाथ पुराण (सं. 1824) जिनेन्द्रभूषण का नेमिपुराण। ये पुराण भाव और भाषा की दृष्टि से उत्तम हैं।
जिन्हें आज खंडकाव्य कहा जाता है, उन्हें मध्यकाल में 'सन्धि' काव्य की संज्ञा दी गयी। सन्धि वस्तुतः सर्ग के अर्थ में प्रयुक्त होता था, पर उत्तरकाल में एक सर्ग वाले खंड काव्यों के लिए इस शब्द का प्रयोग होने लगा। प्रमुख जैन सन्धि-काव्यों में उल्लेखनीय काव्य है-जिनप्रभसूरि का अनत्थि सन्धि (सं. 1297) और मयणरेहा सन्धि, जयदेव का भावना-सन्धि, विनयचन्द का आनन्दसन्धि (14वीं शती), कल्याणतिलक का मृगापुत्र-सन्धि (सं. 1550), चारुचन्द्र का नन्दन मणिहार-सन्धि, (सं. 1587), संयममूर्ति का उदाहर राजर्षि सन्धि (सं. 1590), धर्ममेरु का सुखदुख: विपाक सन्धि (सं. 1604), गुणप्रभसूरि का चित्र-सम्भूति-सन्धि (सं. 1608),
850 :: जैनधर्म परिचय
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