Book Title: Jain Dharm Parichay
Author(s): Rushabhprasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 868
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बारहमासा भी मध्यकाल की एक विधा रही है, जिसमें कवि अपने श्रद्धास्पद देव या आचार्य के बारहमासों की दिनचर्या का विधिवत् आख्यान करता है। ऐसी रचनाओं में हीरानन्द सूरि का स्थूलिभद्र बारहमासा और नेमिनाथ बारहमासा (सं.15वीं शती), डूंगर का नेमिनाथ फाग के नाम से बारहमासा (सं. 1535), ब्रह्मबूचराज का नेमीश्वर बारहमासा (सं. 1581), रत्नकीर्ति का नेमि बारहमासा (सं. 1614), जिनहर्ष का नेमिराजमति बारहमासा (सं. 1713), बल्लभ का नेमिराजुल बारहमासा (सं. 1727), विनोदीलाल अग्रवाल का नेमिराजुल बारहमासा (सं. 1749), सिद्धिविलास का फागुणमास वर्णन (सं. 1763), भवानीदास के अध्यात्म बारहमास (सं. 1781), सुमति-कुमति बारहमास, विनयचन्द्र का नेमिनाथ बारहमास (18वीं शती) आदि रचनाएँ विशेष प्रसिद्ध हैं। ये रचनाएँ अध्यात्म और भक्तिपरक हैं। इसी तरह की और-भी शताधिक रचनाएँ है, जो रहस्य-साधना की पावन सरिता को प्रवाहित कर रही हैं। स्वतन्त्र रूप से बारहमासा 16वीं शती के उत्तरार्ध से अधिक मिलते हैं। विवाहलो भी एक विधा रही है, जिसमें साधक कवि ने अपने भक्तिभाव को पिरोया है। इस सन्दर्भ में जिनप्रभसूरि (14वीं शती) का अन्तरंग विवाह, हीरानंदसूरि (15वीं शती) के अठारहनाता विवाहलो और जम्बूस्वामी विवाहलो, ब्रह्मविनयदेव सूरि (सं. 1615) का नेमिनाथ विवाहलो, महिमसुन्दर (सं. 1665) का नेमिनाथ विवाहलो, सहजकीर्ति का शान्तिनाथ विवाहलउ (सं. 1678), विजय रत्नसूरि का पार्श्वनाथ विवाहलो (सं. 8वीं शती) जैसी रचनाएँ विशेष उल्लेखनीय हैं। इन काव्यों में चरित नायकों के विवाह प्रसंगों का वर्णन तो है ही। पर कुछ कवियों ने व्रतों के ग्रहण को नारी का रूपक देकर उसका विवाह किसी संयमी व्यक्ति से रचाया है। इस तरह द्रव्य और भाव दोनों विवाह के रूप यहाँ मिलते हैं। ऐसे काव्यों में उदयनंदि सूरि विवाहला, कीर्तिरत्न सूरि, गुणरत्न सूरि, सुमतिसाधु सूरि और हेम विमल सूरि विवाहले हैं। ब्रह्म जिनदास (15वीं शती) ने अपने रूपक काव्य 'परमहंस रास' में शुद्ध स्वभावी आत्मा का चित्रण किया है। यह परमहंस आत्मा माया-रूप-रमणी के आकर्षण से मोह ग्रसित हो जाता है। चेतना-महिषी के द्वारा समझाये जाने पर भी वह मायाजाल से बाहर नहीं निकल पाता। उसका मात्र बहिरात्मा-जीव काया-नगरी में बच रहता है। माया से मन-पुत्र पैदा होता है। मन की निवृत्ति व प्रवृत्ति रूप दो पत्नियों से क्रमश: विवेक और मोह नामक पुत्रों की उत्पत्ति होती है। ये सभी परमहंस (बहिरात्मा) को कारागार में बन्द कर देते हैं और निवृत्ति तथा विवेक को घर से बाहर कर देते हैं। इधर मोह के शासनकाल में पाप-वासनाओं का व्यापार प्रारम्भ हो जाता है। मोह की दासी दुर्गति से काम, राग, और द्वेष ये तीन पुत्र तथा हिंसा, घृणा और निद्रा ये तीन पुत्रियाँ होती हैं। विवेक सन्मति से विवाह करता है, सम्यक्त्व के खड्ग से मिथ्यात्व हिन्दी जैन साहित्य :: 859 For Private And Personal Use Only

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