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प्रहेलिका के रूप में लिखी गयी हैं। बौद्धिक व्यायाम की दृष्टि से इनकी उपयोगिता निःसंदिग्ध है। मध्यकालीन जैनाचार्यों ने ऐसी अनेक समस्यामूलक रचनाएँ लिखी हैं। इन रचनाओं में समयसुन्दर और धर्मसी की रचनाएँ विशेष उल्लेखनीय हैं।
उपर्युक्त प्रकीर्णक काव्य में मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने कहीं रस के सम्बन्ध में विचार किया है, तो कहीं अलंकार और छन्द के सम्बन्ध में कहीं कोश लिखे हैं तो कहीं गुर्वावलियाँ, कहीं गजलें लिखी हैं, तो कहीं ज्योतिष पर विचार किया है। यह सब उनकी प्रतिभा का परिणाम है। यहाँ हम उनमें से कतिपय उदाहरण प्रस्तुत करेंगे। रीतिकालीन अधिकांश वैदिक कवि मांसल शृंगार की विवृत्ति में लगे थे, जबकि जैन कवि लोकप्रिय माध्यमों का सदुपयोग आध्यात्मिक क्षेत्र में कर रहे थे। इस सन्दर्भ में एक कवि ने हरियाली लिखी है, तो अन्य सन्त कवियों ने उलटवासियों-जैसे कवित्त लिखे हैं।
__ 17वीं शती के हिन्दी रचनाकारों में आनन्दघन, कल्याणकीर्ति, क्षेमराज, त्रिभुवनकीर्ति, धर्मसागर, यशोविजय, सुमतिसागर, हीरकुशल आदि तथा 18वीं शती के हिन्दी रचनाकारों में कनककीर्ति, कुशलविजय, खुशालचन्द काला, जोधराज गोधीका, देवीदास, दौलतराम कासलीवाल, बुलाकीदास, भूधरदास, यशोविजय, लावण्य विजय, विद्यासागर, सुरेन्द्रकीर्ति, पांडे हेमराज आदि शताधिक हिन्दी जैनाचार्य हुए हैं, जिन्होंने हिन्दी की विविध प्रवृत्तियों को समृद्ध किया है। इस काल के काव्य में भावगाम्भीर्य और तीव्रानुभूति का प्रतिबिम्बन होता है, जिसमें अध्यात्म, भक्ति और शील समाया हुआ है। यहाँ व्रज-भाषा का विशेष प्रभाव दिखाई देता है।
इस प्रकार आदि-मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य की प्रवृत्तियों की ओर दृष्टिपात करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि साधक कवियों ने साहित्य की किसी एक विधा को नहीं अपनाया, बल्कि लगभग सभी विधाओं में अपनी प्रतिभा को उन्मेषित किया है। यह साहित्य भाव, भाषा और अभिव्यक्ति की दृष्टि से भी उच्चकोटि का है। यद्यपि कवियों का यहाँ आध्यात्मिक अथवा रहस्य भावनात्मक उद्देश्य मूलतः काम करता रहा, पर उन्होंने किसी भी प्रकार से प्रवाह में गतिरोध नहीं होने दिया। रसचर्वणा, छन्दवैविध्य, उपमादि अलंकार, ओजादि गुण स्वाभाविक रूप से अभिव्यंजित हुए हैं। भाषादि भी कहीं बोझिल नहीं हो पाई। फलतः पाठक सरसता और स्वाभाविकता के प्रवाह में लगातार बहता रहता है और रहस्य भावना के मार्ग को प्रशस्त कर लेता है। जैनेतर कवियों की तुलना से भी यही बात स्पष्ट होती है।
864 :: जैनधर्म परिचय
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