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तुम्हरो प्रभु जी तन कोमल है, कैसे काम की फौजन सौं लर हौ। जब आवेगी शीत तरंग सबै, तब देखत ही तिनको डर हो।।
12. संख्यात्मक-काव्य मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने संख्यात्मक साहित्य का विपुल परिमाण में सृजन किया है। कहीं यह साहित्य स्तुतिपरक है, तो कहीं उपदेश-परक, कहीं अध्यात्मपरक है, तो कहीं रहस्य-भावना-परक। इस विधा में समास-शैली का उपयोग दृष्टव्य है। लावण्यसमय का स्थूलभद्र एकवीसो (सं. 1553), हीरकलश सिंहासनवतीसी (सं.1631), समयसुन्दर का दसशील तपभावना संवादशतक (सं. 1662), दासो का मदनशतक (सं. 1645), उदयराज की गुणवावनी (सं. 1676), बनारसीदास की समकितवत्तीसी (सं. 1681), पांडे रूपचन्द का परमार्थ दोहाशतक, आनन्दघन का आनन्दघन बहत्तरी (सं. 1705), पांडे हेलराज का सितपट चौरासी बोल (सं. 1709), जिनरंग सूरि की प्रबोधवावनी (सं. 1731), रायमल्ल की अध्यात्मवत्तीसी (17वीं शती), विहारीदास की सम्बोधपंचासिका (सं. 1758), भूधरदास का जैनशतक (1781), बुधजन का चर्चाशतक आदि काव्य अध्यात्म-रसता के क्षेत्र में उल्लेखनीय हैं।
13. गीति-काव्य
गीति काव्य का सम्बन्ध आध्यात्मिक साधना से भी है। आध्यात्मिक भावना के बाधक तत्त्वों को दूरकर, साधक साधकतत्त्वों को प्राप्त करता है और उनमें रमण करते हुए एक ऐसी स्थिति को प्राप्त कर लेता है, जब उसके मन में संसार से वितृष्णा और
वैराग्य का भाव जाग्रत हो जाता है। फलतः वह सद्गुरु की प्रेरणा से आत्मा की विशुद्धावस्था में पहुँच जाता है। इस अवस्था में साधक की आत्मा परमात्मा से साक्षात्कार करने के लिए आतुर हो उठती है और उस साक्षात्कार की अभिव्यक्ति के लिए वह रूपक, आध्यात्मिक विवाह, आध्यात्मिक होली, फागु आदि साहित्यिक विधाओं का अवलम्बन खोज लेती है। मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्यों में इन विधाओं का विशेष उपयोग हुआ है। उसमें साधनात्मक और भावनात्मक दोनों प्रकार की रहस्य-साधनाओं के दिग्दर्शन होते हैं। साधना की चिरन्तनता, मार्मिकता, संवदेनशीलता, स्वसंवेदनता, भेदविज्ञान आदि तत्त्वों ने साधक को निरंजन, निराकार, परम वीतराग आदि रूपों में पगे हुए साध्य को प्राप्त करने का मार्ग प्रस्तुत किया है और चिदानन्द चैतन्यमय ब्रह्मानन्द रस का खूब पान कराया है। साथ ही परमात्मा को अलख, अगम, निराकार, अध्यात्मगम्य, परब्रह्म, ज्ञानमय, चिद्रूप, निरंजन, अनक्षर, अशरीरी, गुरुगुसाई, अगूढ़ आदि शब्दों का प्रयोग कर उसे रहस्यमय बना दिया है। दाम्पत्य-मूलक-प्रेम का भी सरल
हिन्दी जैन साहित्य :: 861
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