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को समाप्त करता है। परमहंस आत्मशक्ति को जाग्रत कर स्वात्मोपलब्धि को प्राप्त करता है । इसी तरह ब्रह्मवृचराज, बनारसीदास आदि के काव्य भी इसी प्रकार भावाभिव्यक्ति से ओतप्रोत हैं। फागु साहित्य में नेमिनाथ फागु (भट्टारक रत्नकीर्ति) यहाँ उल्लेखनीय है । कवि ने राजुल की सुन्दरता का वर्णन किया है
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चन्द्रवदनी मृगलोचनी, मोचनी खंजन मीन। वासग नीत्पो वेणिइ, मेणिण मधुकर दीन ।। युगल गल दाये शशि, उपमा नासा कीट । अधर विद्रुम सम उपमा, दंत नू निर्मल नीर || चिदुक कमल पर षट्पद, आनन्द करै सुधापान । ग्रीवा सुन्दर सोमीत कम्ब कपोलने बान ।।
कुछ फागुओं में अध्यात्म का वर्णन किया गया है । इस दृष्टि से बनारसीदास का अध्यात्म फाग उल्लेखनीय है जिसमें कवि ने फाग के सभी अंग प्रत्यंगों का सम्बन्ध अध्यात्म से जोड़ दिया है - भवपरणति चाचरित भई हो, अष्टकर्म बन जाल ।
ऐतिहासिक काव्य के साथ ही आध्यात्मिक वेलियाँ भी मिलती हैं। इन आध्यात्मिक वेलियों में 'पंचेन्द्रिय वेलि' विशेष उल्लेखनीय है, जिसमें कवि ठाकुरसी ने पंचेन्द्रियविषय वासना के फल को स्पष्ट किया है। स्पर्शेन्द्रिय में आसक्ति का परिणाम है कि हाथी लौह श्रृंखलाओं से बँध जाता है और कीचक, रावण आदि दारुण दुःख पाते हैं । वन तरुवर फल सउँ फिरि, पय पीवत हु स्वच्चंद | परसण इन्द्री प्रेरियो, बहु दुख सहै गयन्द ।। बाध्यो पाग संकुल घाले, सो कियो मसकै चाले । परसण प्ररेहं दुख पायो, तिनि अंकुश धावा धायो ।। परसण रस कीचक पूरयौ, सहि भीम शिलातल चूर्यो । परसण रस रावण नामइ, वारचौ लंकेसुर रामइ ।। परसण रस शंकर राच्यौ तिय आगे नट ज्यौ नाच्यो ।।
मध्यकालीन हिन्दी जैन साहित्य में 'बारहमासा' बहुत लिखे गये हैं । उनमें से कुछ तो निश्चित ही उच्चकोटि के हैं । कवि विनोदीलाल का नेमि - राजुल बारहमासा यहाँ उल्लेखनीय है, जिसमें भाव और भाषा का सुन्दर समन्वय दिखाई देता है । यहाँ राजुल ने अपने प्रिय नेमि को प्राप्य पौष माह की विविध कठिनाइयों का स्मरण दिलाया है
860 :: जैनधर्म परिचय
पिय पौष में जाड़ौ धनो, बिन सौंढ़ के शीत कैसे भर हो । कहा ओढेगे शीत लगे जब ही, किधी पातन की धुवनीधर हो ||
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