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शास्त्रियों ने काफी उद्धृत किया है। पालि में कोई उद्धरण उन्हें इसीलिए नहीं मिल पाया क्योंकि प्राकृत जैसा वैविध्य वहाँ नहीं था। इसी तरह के अन्य प्राकृत काव्यों में विल्हण कृत चौर पंचासिकाय, गोवर्धन कृत आर्या सप्तसती, क्षेमेन्द्र कृत घटकर्पूर तथा नेमिदूतम् और रहमाण कृत सन्देसरासक विशेष उल्लेखनीय हैं। अन्य श्रृंगार परक रचनाओं में जयवल्लभ कृत वज्जालग्गं प्रमुख है। इस काल की कवयित्रियों में विजया करनाटी, शील भट्टिका और मारूला मोतिका के नाम भी छन्दल ग्रन्थों में उल्लिखित हुए हैं। जयदेव और विद्यापति भी प्राकृत और अपभ्रंश मुक्तक परम्परा के ऋणी हैं।
प्राकृत गीतिकाव्य के साथ उसके प्रमुख छन्द गाहा की बात किए बिना मुक्तक काव्य परम्परा की बात अधूरी रह जाएगी। गाथा वस्तुतः गीति है जिसका सम्बन्ध मन्त्रगान और लोकगीत से रहा है।
इस प्रकार अपभ्रंश और अवहट्ट से संक्रमित होकर आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य प्राचीन दाय के साथ सतत बढ़ता रहा और मध्यकालीन हिन्दी जैन साहित्य को वह परम्परा सौंप दी। मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों ने अपभ्रंश भाषा और साहित्य की लगभग सभी विशेषताओं का आचमन किया और उन्हें सुनियोजित ढंग से सँवारा, बढ़ाया और समृद्ध किया। इस प्रवृत्ति में जैन कवियों ने आदान-प्रदान करते हुएकतिपय नये मानों को भी प्रस्तुत किया है जो कालान्तर में विधा के रूप में स्वीकृत हुए हैं। यही उनका योगदान है।
प्राचीन हिन्दी भाषा का भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन करने से यह तथ्य भी प्रच्छन्न नहीं रहता कि शौरसेनी प्राकृत के आधार पर आधुनिक पश्चिमी और मध्यदेशीय हिन्दी भाषाओं का विकास हुआ। पश्चिमी हिन्दी में गुजराती और राजस्थानी तथा मध्यदेशीय हिन्दी में पश्चिमी हिन्दी सम्मिलित है। यह पश्चिमी हिन्दी उत्तरप्रदेश के सम्पूर्ण पश्चिमी क्षेत्र और हरियाणा में बोली जाती है। ब्रजभाषा, बुन्देली और कन्नौजी भी इसी में गर्भित है। पूर्वी हिन्दी से यह पृथक् है। पूर्वी हिन्दी का विकास अर्धमागधी की अपभ्रंश से हुआ है इसके अन्तर्गत तीन बोलियाँ आती हैं-अवधी, वघेली और छत्तीसगढ़ी। इन पूर्वी और पश्चिमी हिन्दी के रूपों में वैसे ही आदान-प्रदान हुआ है जैसे शौरसेनी और अर्धमागधी में। शौरसेनी ही अपभ्रंश, अवहट्ट और तमिल, कन्नड और आधुनिक आर्य भाषाओं को भी प्रभावित करती है। इसी तरह महाराष्ट्री प्राकृत का भी अच्छा प्रभाव जैनेतर साहित्य पर दिखाई देता है।
प्राचीन काल में जैन संस्कृति समग्र वृहत्तर भारत में फैली हुई थी। जैन साधक पदविहारी होने के कारण लोक संस्कृति और भाषा के आवाहक रहे हैं। प्रायः सभी प्राच्य भारतीय भाषाओं का साहित्य जैनाचायों की लेखनी से प्रभूत संवर्धित हुआ है। तमिल भाषा के प्राचीन पाँच महाकाव्यों में शिलप्पदिकारम, वलयापनि और जीवक
848 :: जैनधर्म परिचय
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