________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
जिनदत्त सूरि के चर्चरी उपदेश, रसावनरास और काल स्वरूप कुलकम अपभ्रंश की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। कवि आसिग का जीवदया-रास (वि. सं. 1257, सन् 1200) यद्यपि आकार में छोटा है, पर प्रकार की दृष्टि से उपेक्षणीय नहीं कहा जा सकता। इसमें संसार का सुन्दर चित्रण हुआ है। इन्हीं कवि का चन्दनवाला रास है, जिसमें उसने नारी की संवदेना को बड़े ही सरस ढंग से उकेरा है, अभिव्यक्त किया है। भाषा की दृष्टि से देखिए
भुंभर भोली ता सुकुमाला नाउ दीन्हु तसु चंदण बाला।।21।।
आधो खंडा तप किआ, किव आभइ बहु सुक्ख निहाणु। 26 ।। विजयसेन सूरि का रेवंतगिरि रास (वि. सं. 1287 सन् 1230) ऐतिहासिक रास है, जिसमें रेवंतगिरि जैन तीर्थ यात्रा का वर्णन है। यह चार कडवों में विभक्त है। इसमें वस्तुपाल, तेजपाल के संघ द्वारा तीर्थंकर नेमिनाथ की मूर्ति-प्रतिष्ठा का गीतिपरक वर्णन है। भाषा प्रांजल और शैली आकर्षक है। इसी तरह सुमतिगणि का नेमिनाथ रास (सं. 1295), देवेन्द्र सूरि का गयसुकुमाल रास (सं. 1300), पल्हण का आबूरास (13वींशती), प्रज्ञातिलक का कछूली रास (सं. 1363), अम्बदेव का समरा रासु (सं. 1371), शालिभद्र सूरि का पंचपांडव चरित रास (सं. 1410), विनयप्रभ का गौतम स्वामी रास (सं. 1412), देवप्रभ का कुमारपाल रास (सं. 1450) आदि कृतियाँ विशेष उल्लेखनीय हैं। इस काल की कुछ फागु कृतियाँ भी इसमें सम्मिलित की जा सकती हैं। इन फागु कृतियों में जिनपद्म की सिरि थूलिभद्द फागु (सं. 1390), राजशेखर सूरि का नेमिनाथ फागु (सं. 1405), कतिपय अज्ञात कवियों की जिन चन्द्र सूरि फागु (सं. 1341), वसन्त विलास फागु (सं. 1400) का भी उल्लेख करना आवश्यक है।
आदिकाल की इस भाषिक और साहित्यिक प्रवृत्ति ने मध्यकालीन कवियों को बेहद प्रभावित किया। विषय, भाषा शैली और परम्परा का अनुसरण कर उन्होंने आध्यात्मिक और भक्ति-मूलक रचनाएँ लिखीं। इन रचनाओं में उन्होंने आदिकालीन काव्य शैलियों और काव्य रूढ़ियों का भी भरसक उपयोग किया। हिन्दी के आख्यानक काव्य अपभ्रंश साहित्य में ग्रथित लोक-कथाओं पर खड़े हुए हैं। देवसेन, जोइन्दु और रामसिंह-जैसे रहस्यवादी जैन कवियों के प्रभाव को हिन्दी सन्त-साहित्य पर आसानी से देखा जा सकता है। भाषा, छन्द, विधान और काव्य रूपों की दृष्टि से भी अपभ्रंश काव्यगत वसन्तु-ऋतु-वर्णन और प्रकृति-चित्रण उत्तरकालीन हिन्दी कवियों के लिए उपजीवक सिद्ध हुए हैं। जायसी और तुलसी पर उनका अमिट प्रभाव दृष्टव्य है। छन्द-विधान, काव्य और कथानक रूढ़ियों के क्षेत्र में यह प्रभाव अधिक देखा जाता है। प्रभाव ही क्या प्रायः समूचा हिन्दी-जैन-साहित्य अपभ्रंश-साहित्य की रूढ़ियों पर लिखा गया है।
846 :: जैनधर्म परिचय
For Private And Personal Use Only