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विशेष से है । यह साहित्य गीत - नृत्यपरक और छन्द - वैविध्य-परक मिलता है। जैन कवियों ने गीत-नृत्यपरक - परम्परा को अधिक अपनाया है। इनमें कवियों ने धर्मप्रचार को विशेष महत्त्व दिया है। इस सन्दर्भ में शालिभद्र सूरि का पाँच पाण्डव रास (सं. 1410), विनयप्रभ उपाध्याय का गौतमरास (सं. 1412), सोमसुन्दर सूरि का आराधनारास (सं. 1450), जयसागर के वयरस्वामी गुरुरास और गौतमरास, हीरानन्दसूरि के वस्तुपाल तेजपाल रासादि (सं. 1486), सकलकीर्ति (सं. 1443), के सोलहकारण आदि उल्लेखनीय हैं। ब्रह्मजिनदास (सं. 1445 - 1525) का रासा - साहित्य कदाचित् सर्वाधिक है। उनमें रामसीतारास, यशोधररास, हनुमतरास (725 पद्य), नागकुमाररास, परमहंसरास (1900 पद्य), अजितनाथ रास, होलीरास ( 148 पद्य), धर्मपरीक्षारास, ज्येष्ठ जिनवर रास (120 पद्य), श्रेणिकरास, समकितमिथ्यात्वरास (70 पद्य), सुदर्शनरा (सं. 337 पद्य), अम्बिका रास (158 पद्य), नाग श्रीरास (253 पद्य), जम्बूस्वामी रास (10005 पद्य), भद्रबाहुरास, कर्मविपाक रास, सुकौशल स्वामी रास, रोहिणीरास, सोलहकारणरास, दशलक्षणरास, अनन्तव्रतरास, बंकचूल रास, धन्यकुमाररास, चारुदत्त - प्रबन्ध-रास, पुष्पांजलि-रास, धनपालरास (दानकथा रास), भविष्यदत्त जीवन्धररास, नेमीश्वररास, करकंडुरास, सुभौमचक्रवर्तीरास और अट्ठमूलगुण रास प्रमुख हैं । इनकी भाषा गुजराती - मिश्रित है। इन ग्रन्थों की प्रतियाँ जयपुर, उदयपुर, दिल्ली आदि के जैन - शास्त्र - भंडारों में उपलब्ध हैं I
इनके अतिरिक्त मुनिसुन्दरसूरि का सुदर्शन श्रेष्ठिरास (सं. 1501), मुनि प्रतापचन्द का स्वप्नावलीरास (सं. 1500), सोमकीर्ति का यशोधररास (सं. 1526), संवेग सुन्दर उपाध्याय का सारसिखामनरास (सं. 1548), ज्ञानभूषण का पोसहरास (सं. 1558), यश: कीर्ति का नेमिनाथरास (सं. 1558), ब्रह्मज्ञानसागर का हनुमन्तरास (सं. 1630), मतिशेखर का धन्नारास (सं. 1514), विद्याभूषण का भविष्यदत्तरास (सं. 1600), उदयसेन का जीवन्धररास (सं. 1606), विनयसमुद्र का चित्रसेन पद्मावतीरास (सं. 1605), रायमल्ल का प्रद्युम्नरास (सं. 1668 ), पांडे जिनदास का योगीरासा (सं. 1660), हीरकलश का सम्यक्त्व कौमुदीरास (सं. 1626), भगवतीदास (सं. 1662) के जोगीरासा आदि, सहजकीर्ति के शीलरासादि (सं. 1686 ), भाऊ का नेमिनाथ रास (सं. 1759), चेतनविजय का पालरास जैन रासा - ग्रन्थों में उल्लेखनीय हैं।
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इन रासा ग्रन्थों में शृंगार, वीर, शान्त और भक्ति रस का प्रवाह दिखाई देता है । प्रायः सभी रासों का अन्त शान्तरस से रंजित है, फिर भी प्रेम और विरह के चित्रों की कमी नहीं है । इस सन्दर्भ में 'अंजना - सुन्दरी रास' उल्लेख्य है, जिसमें अंजना के विरह का सुन्दर चित्रण किया गया है।
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हिन्दी जैन साहित्य :: 853