Book Title: Jain Dharm Parichay
Author(s): Rushabhprasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 863
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस प्रकार जैन रासा साहित्य एक ओर जहाँ ऐतिहासिक अथवा पौराणिक महापुरुषों के चरित्र का चित्रण करता है, वहीं साथ ही आध्यात्मिक अथवा धार्मिक आदर्शों को भी प्रस्तुत करता है। जैनों की धार्मिक रास परम्परा हिन्दी के आदिकाल से ही प्रवाहित होती रही है। मध्ययुगीन रासा साहित्य में आदिकाल रासा साहित्य की अपेक्षा भाव और भाषा का अधिक सौष्ठव दिखाई देता है। आध्यात्मिक रसानुभूति की दृष्टि से यह रासा साहित्य अधिक विवेचनीय है। 6. रूपक-काव्य ____ आध्यात्मिक रहस्य को अभिव्यक्त करने का सर्वोत्तम साधन प्रतीक और रूपक होते हैं। जैन कवियों ने सांसारिक चित्रण, आत्मा की शुद्धाशुद्ध-अवस्था, सुख:दुख की अवस्थाएँ, रागात्मक विकार और क्षणभंगुरता के दृश्य जिस सूक्ष्मान्वेक्षण और गहनअनुभूति के साथ प्रस्तुत किये हैं, वह अभिनन्दनीय है। रूपक काव्यों का उद्देश्य वीतरागता की सहज प्रवृत्ति का लोक-मांगलिक चित्रण करना रहा है। आत्मा की स्वाभाविक क्षमता मिथ्यात्व आदि के बन्धन से किस प्रकार ग्रसित होकर भवसागर में भ्रमण करता रहता है और किस प्रकार उससे मुक्त होता है, इस प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग को विश्लेषित कर जैन कवियों ने आत्मा की अतुल शक्ति को रूपकों के माध्यम से उद्घाटित करने का प्रयत्न किया है। इस विधि से जैन तत्त्वों के निरूपण में नीरसता नहीं आ पायी, बल्कि भाव-व्यंजना कहीं अधिक गहराई से उभर सकी है। इस दृष्टि से त्रिभुवनदीपक प्रबन्ध, विद्याविलास पवाड़ा, नाटक समयसार, चेतनकर्मचरित, मधु बिन्दुक चौपई, उपशम पच्चीसिका, परमहंस चौपई, मुक्तिरमणी चूनड़ी, चेतन पुद्गल धमाल, मोहविवेक युद्ध आदि रचनाएँ महत्त्वपूर्ण हैं। रूपकों के माध्यम से विवाहलउ भी बड़े सरस रचे गये हैं। इन रूपक काव्यों में दार्शनिक, आध्यात्मिक तथा सूक्ष्म भावनाओं का सुन्दर विश्लेषण किया गया है। नाटक समयसार इस दाष्टि से विशेष उल्लेखनीय है। कवि बनारसीदास ने रूपक के माध्यम से मिथ्यादृष्टि जीव की स्थिति का कितना सुन्दर चित्रण किया है,- यह देखते ही बनता है-काया चित्रसारी मैं करम परजंक मारी। इस प्रकार रूपक काव्य आध्यात्मिक चिन्तन को एक नई दिशा प्रदान करते हैं। साधकों ने आध्यात्मिक साधनों में प्रयुक्त विविध तत्त्वों को भिन्न-भिन्न रूपकों में खोजा है और उनके माध्यम से चिन्तन की गहराई में पहुंचे हैं। इससे साधना में निखार आ गया है। रूपकों के प्रयोग के कारण भाषा में सरसता और आलंकारिकता स्वभावत: अभिव्यंजित हुई है। 7. अध्यात्म और भक्ति-मूलक काव्य हिन्दी जैन साहित्य मूलतः अध्यात्म और भक्ति-परक है। उसमें श्रद्धा, ज्ञान और 854 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only

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