Book Title: Jain Dharm Parichay
Author(s): Rushabhprasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 848
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूर्ण साहित्य; अमृतचन्द्र, जयसेन, मल्लिषेण, मेघनन्दन, सिद्धसेनसूरि, माघनन्दि, जयशेखर, आशाधर, रत्नमन्दिरगणी आदि का सिद्धान्त साहित्य; हरिभद्र, अकलंक, विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि, प्रभाचन्द, हेमचन्द, मल्लिषेण, यशोविजय आदि का न्याय-विषयक साहित्य; अमितगति, सोमदेव, माघनन्दि, आशाधर, वीरनन्दि, सोमप्रभसूरि, देवेन्द्रसूरि, राजमल्ल आदि का आचार - शास्त्र साहित्य; अकलंक, वप्पिभट्टि, धनंजय, विद्यानन्दि, वादिराज, मानतुंग, हेमचन्द, आशाधर, पद्मनन्दि, दिवाकरमुनि आदि का भक्ति - परक साहित्य; रविषेण, जिनसेन, गुणभद्र, श्रीचन्द, दामनन्दि, मल्लिषेण, देवप्रभसूरि, हेमचन्द, आशाधर, जिनहर्षगणि, मेरुतुंगसूरि, विनयचन्दसूरि, गुणविजयगणि आदि का पौराणिक और ऐतिहासिक काव्य - साहित्य; हरिषेण, प्रभाचन्द, सिद्धर्षि, रत्नप्रभाचार्य, जिनरत्नसूरि, माणिक्यसूरि आदि का कथा-साहित्य संस्कृत भाषा में निबद्ध हुआ । इसी तरह ललित, ज्योतिष, कोश, व्याकरण, आयुर्वेद, अलंकार - शास्त्र आदि क्षेत्रों में जैन कवियों ने संस्कृत भाषा के साहित्य - भंडार को भरपूर समृद्ध किया । इसी युग में प्राकृत भाषा में आगमों पर भाष्य, चूर्णि व टीका - साहित्य लिखा गया । कर्म - साहित्य के क्षेत्र में वीरसेन, जयसेन, नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती, वीरशेखरविजय, चन्दर्षि महत्तर, गर्गर्षि, जिनबल्लभगणि, देवेन्द्रसूरि, हर्षकुलगणि आदि आचार्यों ने; सिद्धान्त के क्षेत्र में हरिभद्रसूरि, कुमार कार्तिकेय, शान्तिसूरि, राजशेखरसूरि, जयबल्लभ, गुणरत्नविजय आदि आचार्यों ने; आचार व भक्ति के क्षेत्र में हरिभद्रसूरि, वीरभद्र, देवेन्द्रसूरि, वसुनन्दि, जिनप्रभसूरि, धर्मघोषसूरि आदि आचार्यों ने; पौराणिक और कथा के क्षेत्र में शीलाचार्य, भद्रेश्वरसूरि, सोमप्रभाचार्य, श्रीचन्दसूरि, लक्ष्मणगणि, संघदासगणि, धर्मदासगणि, जयसिंहसूरि, देवभद्रसूरि, देवेन्द्रगणि, रत्नशेखरसूरि, उद्योतनसूरि, गुणपालमुनि, देवेन्द्रसूरि आदि आचार्यों ने प्राकृत भाषा में शताधिक ग्रन्थ लिखे । लाक्षणिक, गणित, ज्योतिष, शिल्प आदि क्षेत्रों में भी प्राकृत भाषा को अपनाया गया, जिसने हिन्दी के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया । अपभ्रंश का हिन्दी पर प्रभाव प्राकृत के ही उत्तरवर्ती विकसित रूप अपभ्रंश ने तो हिन्दी साहित्य को सर्वाधिक प्रभावित किया है। स्वयंभू (7-8वीं शती) का पउमचरिउ और रिट्ठणेमिचरिउ, धवला (10-11वीं शती) और यश: कीर्ति ( 15वीं शती) के हरिवंशपुराण, पुष्पदन्त ( 10वीं शती) के तिसट्ठिपुरिसगुणालंकार ( महापुराण), जसहरचरिउ और णायकुमारचरिउ, धनपाल धक्कड़ (10वीं शती) का भविसयत्तकहा, कनकामर ( 10वीं शती) का करकंड चरिउ, धाहिल (10वीं शती) का पउमसिरिचरिउ, हरिदेव का मयणपराजय, अब्दुल रहमान का संदेसरासक, रामसिंह का पाहुड़दोहा, देवसेन का सावयधम्मदोहा आदि सैकड़ों ग्रन्थ अपभ्रंश में लिखे गये हैं, जिन्होंने हिन्दी के आदिकाल और मध्यकाल हिन्दी जैन साहित्य :: 839 For Private And Personal Use Only

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