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में 'णउ सक्कड पाउअ देस भासा' कहकर इसी स्वरूप को 'अवहट्ट और देसिल वअना' की संज्ञा दी है। रुद्रट, राजशेखर आदि कवियों ने भी अपभ्रंश को भाषा के विभेदों में गिना है। अतः इस काल को हिन्दी का आदिकाल कहा जा सकता है। इसके बावजूद व्यावहारिक दृष्टि से आदिकाल को लगभग 11वीं शती से 14वीं शती तक मानते हैं; 7वीं शती से 10वीं शती तक का काल उसकी पृष्ठभूमि के रूप में देखा जा सकता है।
आदिकाल का अपभ्रंश-बहुल प्रारम्भिक साहित्य __ प्राकृत के ही उत्तरवर्ती विकसित रूप अपभ्रंश ने तो हिन्दी साहित्य को सर्वाधिक प्रभावित किया है। स्वयंभू (7-8वीं शती) का पउमचरिउ और रिट्ठणेमिचरिउ, धवल (10-11वीं शती) और यश:कीर्ति के हरिवंशपुराण, पुष्पदन्त (10वीं शती) तिसट्टिपुरिस गुणालंकारु (महापुराण), जसहरचरिउ, णायकुमार चरिउ, धनपाल धक्कड (10वीं शती) का भविसयत्त कहा, कनकामर (10वीं शती) का करकंडचरिउ, धाहिल (10वीं शती) का पउमसिरिचरि, हरिदेव का मयणपराजय, अब्दुल रहमान का सन्देसरासक, रामसिंह का पाहुड दोहा, देवसेन का सावयधम्मदोहा आदि सैकड़ों ग्रन्थ अपभ्रंश में लिखे गये हैं, जिन्होंने हिन्दी के आदिकाल और मध्यकाल को प्रभावित किया है। उनकी सहज-सरल भाषा, स्वाभाविक वर्णन और सांस्कृतिक धरातल पर व्याख्यायित दार्शनिक सिद्धान्तों ने हिन्दी जैन साहित्य की समग्र कृतियों पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। भाषिक परिवर्तन भी इन ग्रन्थों में सहजतापूर्वक देखा जा सकता है। हिन्दी के विकास की यह आद्य कड़ी है।
अपभ्रंश का क्षेत्र बड़ा विस्तृत है। उसे हम पूर्वी, पश्चिमी, उत्तरी और दक्षिणी अपभ्रंश में विभाजित कर सकते हैं। पूर्वी अपभ्रंश से ही बंगला, उड़िया, भोजपुरी, मैथिली, अवधी, छत्तीसगढ़ी, वघेली आदि भाषाएँ निकली हैं और पश्चिमी अपभ्रंश से राजस्थानी, गुजराती, बुन्देली आदि भाषाएँ उद्भूत हुई हैं। दोनों के मूल में शौरसेनी प्राकृत रही है। शौरसेनी प्राकृत से शौरसेनी अपभ्रंश और इससे एक ओर हिन्दी की बोलियाँ ब्रजभाषा, खड़ी बोली, बुन्देली तथा दूसरी ओर उसके एक प्रादेशिक रूप नागर या महाराष्ट्री अपभ्रंश से गुजराती और पश्चिमी राजस्थानी का विकास हुआ है। __ अपभ्रंश कवियों की भाषा हिन्दी के आदिकाल की ओर झुकती हुई दिखाई देती है। हेमचन्द्र तक आते-आते यह प्रवृत्ति और अधिक परिलक्षित होने लगती है। उदाहरणत:
भल्ला हुआ जो मारिआ, बहिणि म्हारा कंतु। लज्जेज्जन्तु वयंसिय हु, जइ भग्ग धरु एंतु।।
हिन्दी जैन साहित्य :: 841
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