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शुभ-अशुभ संकल्प विकल्पों में इष्ट-अनिष्ट बुद्धि से रहित, विशुद्ध दर्शन -ज्ञानस्वभावी निजात्मा में निश्चल स्थिति होने से कुदेव में देवबुद्धि, कुधर्म-अधर्म में धर्मबुद्धि तथा कुगुरु में गुरुबुद्धि नहीं होना ही अमूढदृष्टि है ।
(5) उपगूहन - जो चेतयिता सिद्धों की, शुद्धात्मा की भक्ति से युक्त है और पर वस्तुओं के सर्वधर्मों को गोपन करने वाला है अर्थात् रागादि भावों से युक्त नहीं होता है । पवित्र जिनधर्म की अज्ञानी असमर्थ जनों के आश्रय से उत्पन्न हुई निन्दा को दूर करता है, वह उपगूहन गुणधारी है।
(6) स्थितिकरण - कषायोदय आदि से धर्मभ्रष्ट होने के कारण मिलने पर भी अपने धर्म से च्युत नहीं होना, निरन्तर मार्ग में स्थापित रहना तथा अन्य को भी पतनोन्मुख देखकर धर्मबुद्धि रखते हुए सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र में दृढ़ करना स्थितिकरण अंग है।
(7) वात्सल्य - जिनधर्म और जिनधर्म धारक धर्मात्मा जनों में अन्तरंग प्रीति रखना । जैसे कि गाय के हृदय में तत्काल जन्मे बछड़े के प्रति अकारण अगाध प्रीति होती है, वात्सल्य अंग है ।
(8) प्रभावना - विद्या रूपी रथ पर आरूढ़ हुआ, ज्ञान रूपी रथ के चलने के मार्ग में स्वयं भ्रमण करता है, वह जिनेन्द्र भगवान के ज्ञान की प्रभावना करने वाला सम्यग्दृष्टि है तथा जिन प्रवचन की कीर्ति, विस्तार या वृद्धि करना जिसका जीवन है, वह जिनधर्म प्रभावक जानना चाहिए।
जिनागम में विस्तार से इन अंगों में प्रसिद्ध महापुरुषों का उल्लेख भी पाया जाता है । उनके नाम क्रमशः निम्न हैं, जिनकी कथाओं को 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' आदि ग्रन्थों से विस्तृत जानना चाहिए
(1) अंजन चोर, (2) अनन्तमती, (3) उद्दायन राजा, (4) रानी रेवती, (5) जिनभक्त सेठ, (6) वारिषेण मुनिराज, (7) मुनिराज विष्णुकुमार (8) मुनिराज वज्रकुमार ।
पवित्र सम्यग्दर्शन में सम्भवित दोष पच्चीस कहे गए हैं, जिनके होने पर सम्यग्दर्शन कलंकित होता है अथवा सम्यग्दर्शन हो ही नहीं पाता है
आठ दोष :
1. शंका- वीतराग जिनोपदिष्ट तत्त्वों में विश्वास न कर उनके प्रति सशंकित
रहना ।
2.
कांक्षा - भौतिक भोगोपभोग एवं ऐहिक सुखों की अपेक्षा रखना । 3. विचिकित्सा - रत्नत्रय के प्रति अनादर रखते हुए धर्मात्मा जनों के उपेक्षित मलिन शरीर को देखकर उनसे ग्लानि, घृणा करना ।
ध्यान, भावना एवं मोक्षमार्ग :: 461
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