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साहित्यिक विधाओं के प्रणयन का माध्यम भी प्राकृत बनी। सेतुबन्ध', 'गउडवहो'जैसे शास्त्रीय महाकाव्यों के अतिरिक्त 'गाथासप्तशती'-जैसी जन-जीवन से सम्बन्धित मर्मस्पर्शी रचनाएँ और अन्य शाश्वत-कोटि की दर्जनों रचनाएँ भी प्राकृत में लिखी गयीं। प्राकृतों के विकास में जैनाचार्यों का योगदान
जैनाचार्य-लेखकों की यह विशेषता रही है कि उन्होंने लोकनायक वर्धमानमहावीर के समान ही परवर्ती कालों में लोकभाषा प्राकृत को सम्मान दिया। यही कारण है ईस्वी सन् के प्रारम्भ से ही शाश्वत-कोटि के विविध विषयक शताधिक प्राकृतग्रन्थ लिखे गये। उनके प्राकृत-कथा साहित्य की प्रशंसा तो प्राच्य एवं पाश्चात्य प्राच्यविद्याविदों ने मुक्त-कण्ठ से की है। गुण एवं परिमाण दोनों ही दृष्टियों से वह विशाल है। सुप्रसिद्ध जर्मन-विद्वान् डॉ. मोरिस विंटरनित्ज़ ने कहा है कि "श्रमणसाहित्य की कथाएँ केवल निजन्धरी कथाओं से ही नहीं ली गयीं, अपितु लोक-कथाओं, परी-कथाओं और दृष्टान्त-कथाओं से भी गृहीत हैं।.....जैन साहित्य की टीकाओं एवं विपुल जैन कथा-साहित्य के माध्यम से प्राचीन भारतीय कथा-रूपी अमूल्य उज्ज्वल मणियाँ हमारे सम्मुख निरन्तर प्रसूत होती रहीं। यदि जैन-लेखक इन भारतीय कथाओं को प्रश्रय न देते, तो आज उनका अस्तित्व ही नहीं रहता। जैन-लेखकों ने निस्सन्देह विविध कथानकों एवं आख्यानों के उन विविध रोचक रूपों की भी सुरक्षा की है, जिनकी सूचना अन्य स्रोतों से भी उपलब्ध है।"
शोधार्थियों की दृष्टि से उक्त कथा-साहित्य को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है(1) उपदेशों की पुष्टि एवं स्पष्टीकरण के निमित्त नीति, आचार एवं धर्म
सम्बन्धी सूक्तियों को लेकर लिखी गयी लौकिक एवं दृष्टान्त कथाएँ। (2) घटना प्रधान प्रवाहात्मक आख्यान, जिनके अन्त में कोई शिक्षा अथवा
चारित्रिक निष्कर्ष प्रस्तुत किया जाता है। (3) बृहत्कथा-इस कोटि की कथाएँ, जो आधुनिक उपन्यास के समान विस्तृत
धरातल पर निर्मित हैं। तथा, (4) पुराण एवं चरित-साहित्य।
जैनाचार्यों ने विविध पक्षीय प्राकृत जैन-साहित्य का वर्गीकरण द्रव्यानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग एवं प्रथमानुयोग रूप चतुर्विध-अनुयोगों में करते हुए कथासाहित्य को प्रथमानुयोग-साहित्य की संज्ञा प्रदान की है। इन अनुयोग-विधा के रूप में शाश्वत-कोटि के शताधिक ग्रन्थों की रचनाएँ हुईं।
संस्कृत-नाटकों में प्रयुक्त प्राकृत-सन्दर्भो के अतिरिक्त स्वतन्त्र रूप से प्राकृत-भाषा में नाटक भी लिखे गये। रूपक-तत्त्व की दृष्टि से इन नाटकों को 'सट्टक' की संज्ञा
780 :: जैनधर्म परिचय
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