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अन्य सभी सम्बद्ध विषयों का भी निरूपण है। इस पर अनेक टीकाग्रन्थ भी लिखे गये, जिनमें आचार्य प्रभाचन्द्र (ई. 11) द्वारा प्रमेयकमलमार्तण्ड', आचार्य लघु अनन्तवीर्य (वि. 12वीं शती) द्वारा रचित 'प्रमेयरत्नमाला' आदि प्रमुख हैं। इनमें प्रमेयकमलमार्तण्ड' टीकाग्रन्थ होते हुए भी खण्डन-मण्डनात्मक दृष्टि से प्रौढ़ शास्त्रीय चर्चा से युक्त एक मौलिक व प्रामाणिक ग्रन्थ के रूप में विद्वानों में विशेष आदरणीय रहा है। विषयविवेचन में इनकी आस्था दिगम्बर मान्यता के प्रति स्पष्ट अभिव्यक्त होती है। इसमें भूतचैतन्यवाद, सर्वज्ञत्व, ईश्वरकर्तृत्व, केवलि-कवलाहार, स्त्री-मुक्ति, वेद की अपौरुषेयता, क्षणिकवाद, सामान्य (जाति) स्वरूप, जय-पराजय-व्यवस्था आदि अनेक विषयों का विस्तृत तार्किक शैली से विचार करते हुए जैन दृष्टि से उनकी समीक्षा की गयी है। आचार्य प्रभाचन्द्र के दूसरे ग्रन्थ 'न्यायकुमुदचन्द्र' का उल्लेख पहले किया जा चुका है जो अकलंक-कृत लघीयस्त्रय पर एक विशालकाय टीका ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ भी जैन न्याय का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रतिष्ठापक ग्रन्थ माना जाता है। __आचार्य वादिदेवसूरि-रचित प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार आठ परिच्छेदों में विभक्त है और कुल सूत्रों की संख्या 377 है। इस ग्रन्थ पर ग्रन्थकार ने स्याद्वादरत्नाकर नामक स्वोपज्ञ विस्तृत भाष्य भी लिखा है। यह भाष्य 84 हजार श्लोक-परिमाण वाला है
और ग्रन्थ के अर्थगाम्भीर्य को अधिकाधिक विशद रूप से प्रकाशित करता है। इन्हीं के शिष्यरत्न श्री रत्नप्रभसूरि (ई. 12-13वीं शती) ने 'स्याद्वादरत्नाकरावतारिका' नामक टीका लिखी है, वह भी एक प्रौढ़ रचना है।
जैन-न्याय की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले आचार्यों की उक्त परम्परा अनवरत प्रवहमान रही। इसी क्रम में ई. 11वीं शती के आचार्य वादिराज हुए, जिनकी दो रचनाएँ उपलब्ध हैं—'न्यायविनिश्चयविवरण' तथा 'प्रमाणनिर्णय'। पहला ग्रन्थ अकलंक-कृत न्यायविनिश्चय की विशाल टीका के रूप में है और दूसरा एक गद्यात्मक लघु मौलिक कृति है, जिसमें जैन न्याय व प्रमाणशास्त्र से सम्बन्धित सारभूत विवेचन किया गया है। इसी परम्परा में श्री अभयदेवसूरी (ई. 10-11) ने आचार्य सिद्धसेन कृत 'सन्मतितर्क' (प्रकरण) पर एक तत्त्वबोधविधायिनी (वादमहार्णव) नामक विशालकाय टीका लिखी है-जो दार्शनिक जगत् में अत्यन्त आदरणीय रही है।
उक्त जैन न्याय-परम्परा को अधिक परिवर्द्धित व परिपुष्ट करने वाले आचार्यों में कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र (ई. 12वीं), आचार्य मल्लिषेण (ई. 14वीं शती), तथा उपाध्याय श्री यशोविजय (ई. 18वीं) के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने संस्कृतपद्यात्मक दो द्वात्रिंशतिकाएँ- 'अन्ययोगव्यवच्छेदिका' तथा 'अयोगव्यवच्छेदिका' के अतिरिक्त 'प्रमाणमीमांसा' नामक (अपूर्ण) ग्रन्थ रचकर न्यायसाहित्य के भण्डार को समृद्ध किया। द्वात्रिंशतिकाओं में जिनेन्द्र-स्तुति के माध्यम से
संस्कृत साहित्य-परम्परा :: 797
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