Book Title: Jain Dharm Parichay
Author(s): Rushabhprasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 823
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शासन', बोप्पण्ण का 'गोम्मटस्तुति' सरस कविताएँ हैं । अनुपमरूपने स्मरनुदग्रवे निर्जितचक्रि मत्तुदा रने नेरे गेल्दुमित्तनखिळोर्वियंनत्यभिमानिये तप स्थनुंमेरघ्रित्तिळेयोळिर्दपुर्देबननून बोधने विनिहतकर्यबंधनेने बाहुबलीशनिदेनुदात्तनो ॥ (गोम्मटस्तुति) [ क्या बाहुबलि सुन्दर है ? वह तो कामदेव है, क्या पराक्रमी है ? उसने चक्रवर्ति को हराया। क्या वह उदार है ? विजयी होकर भी अपने सारे राज्य को भाई को सौंप दिया। क्या वह अत्यन्त अभिमानी है ? तप करते हुए उसने सोचा कि भाई को दी हुई भूमि पर दो पैर रखे हैं। क्या वह स्व- बोध है ? कर्मबन्ध से मुक्त हुआ। ऐसा बाहुबलि कितना उदात्त है ] जन्न, नागचन्द्र, पार्श्वपंडित जैसे प्रसिद्ध कवियों ने भी शिलालेख लिखे हैं । कुछ जैनकाव्यों से चुने हुए पद्य, शिलालेखों में उल्लिखित हैं । कन्नड़ गद्य - प्रकार में भी जैन कृतिकारों की देन मौलिक है । कन्नड़ की उपलब्ध प्रथम गद्यकृति 'बोड्ड्राराधना' (890 ई.) जैन कथाकोश है। 10वीं शताब्दी के गंगसेनानी चामुंडराय कृत 'त्रिषष्टिलक्षण महापुराण' में 63 शलाकापुरुषों का चरित चित्रित है। यह कन्नड़ में रचित एकैक महापुराण है । गद्यकृतियों में 12वीं सदी के हस्तिमल्ल का 'पूर्वपुराण', 19वीं सदी के देवचन्द्र का 'राजावली' उल्लेखनीय हैं। कथा प्रकार के पोषण में भी कन्नड़ जैन कवियों की देन गणनीय हैं। नयसेन का 'धर्मामृत' ( 1100 ई.) प्रसिद्ध कथाकोश है, जिसमें देसी भाषा का प्रयोग विशिष्ट है। नागराज का ‘पुण्यास्रव' (1350 ई.) और तीसरे मंगरस का 'सम्यक्त्व कौमुदी' ( 1510 ई.) आकर्षक व बोधप्रद कथाओं का संकलन है। जैन दर्शन व सिद्धान्त के बारे में रचित कन्नड़ ग्रन्थों में माघणंदि आचार्य का 'पदार्थसारं ' (1260 ई.) 30 परिच्छेदों में विभाजित है । करणानुयोग, चरणानुयोग व द्रव्यानुयोग के अन्तर्गत सप्ततत्त्व, नवपदार्थ, रत्नत्रय, सप्तभंगी, 14 गुणस्थान आदि तत्त्वों का विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। इस ग्रन्थ के पठन व मनन द्वारा प्रत्येक आत्मा भेदविज्ञान को ज्ञान प्राप्त करके, 18 दोषों को नष्ट करके परमात्मा बनने हेतु प्रयत्न करने का दिव्य सन्देश है । बन्धुवर्म के 'जीवसम्बोधन' (1260 ई.) में 12 अनुप्रेक्षाओं का सविस्तार विवेचन के साथ उपबन्ध के रूप में कथाएँ भी दी गयी हैं। आयतवर्म विरचित 'श्रावकाचार' ( 1400 ई.) और विजयण्ण के 'द्वादशानुप्रेसे' कृतियों में तत्त्वों का पूर्ण परिचय मिलता है। कन्नड़ के शब्दकोश, काव्यशास्त्र, व्याकरण सम्बन्धी बहुतेक कृतियों के कर्ता जैन ही हैं। 10वीं शताब्दी के रन्न का 'रन्नकन्द', 12वीं शताब्दी के दूसरे गुणवर्ण का 814 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only

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