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तमिल जैन साहित्य
सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री दक्षिण भारत में जैनधर्म की पूर्व स्थिति को जानने के लिए हमें मुख्य रूप से तमिल साहित्य का ही आश्रय लेना होता है। ___ 'कुरल' के तत्काल बाद का समय प्राचीन तमिल साहित्य की समृद्धि का समय है, जिसका निर्माण मुख्य रूप से जैनों के संरक्षण में हुआ है। इस काल को तमिल साहित्य का उच्चतम काल' कहते हैं। यह काल बौद्धिक दृष्टि से जैनों के प्राबल्य का काल है; राजनीतिक दृष्टि से नहीं। इसी काल के अन्तर्गत ईसा की दूसरी शताब्दी में तमिल का प्रसिद्ध ग्रन्थ 'शिलप्पदिकारम्' रचा गया। इसका रचयिता ल्लंगोवाडिगल् था। वह चेर राजकुमार शेगोंट्टवन का भाई था और सम्भवतया जैनधर्म का अनुयायी भी। 'शिलप्पदिकारम्' तथा 'मणिमेखलै' में तत्कालीन द्रविड़ संस्कृति को स्पष्ट देखा जा सकता है। उस समय वहाँ पूर्ण धार्मिक सहनशीलता थी और जैनधर्म का प्रवेश राजघरानों तक में हो चुका था।
इस काव्य में वर्णित जैन आचार-विचारों से तथा जैन विद्या केन्द्रों के उल्लेखों से पाठक के मन पर निस्सन्देह यह प्रभाव पड़ता है कि द्रविड़ों का बहुभाग जैनधर्म को
अपनाये हुए था और उनकी संख्या बराबर बढ़ रही थी। __ ईसा की दूसरी शताब्दी जैन इतिहास की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इस शताब्दी में जैनधर्म का खूब प्रचार हुआ। इसका कारण कुन्दकुन्द जैसे महान् जैनाचार्यों का प्रादुर्भाव तथा कर्नाटक में गंगों का राज्य था। गंगवंश में गंगवाड़ी पर दूसरी शती से लेकर ग्यारहवीं शती तक लगभग नौ सौ वर्ष राज्य किया। वह वंश जैनधर्म का महान् संरक्षक था।
श्री आयंगर ने 'पेरिय पुराणम्' के कर्नाटक राजा को कलभ्र प्रमाणित किया है और आगे लिखा है कि 'पेरिय पुराण' के अनुसार कलभ्रों ने जैनधर्म को अपनाया और जैनों से, जिनकी संख्या अगण्य थी, बड़े प्रभावित हुए। कहा जाता है कि तमिल प्रदेश में जैनधर्म को और भी अधिक दृढ़ता से स्थापित करने के लिए जैनों ने स्वयं कलभ्रों को आमन्त्रित किया था। अत: कलभ्रों का तथा उनके बाद के समय को जैनों की शक्ति-सम्पन्नता का मध्याह्नकाल कहा जाता है। इसी समय में जैनों ने प्रसिद्ध 'नालदियार'
818 :: जैनधर्म परिचय
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