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वेश में गुप्तचर घूमते थे। दान, शील, तप व भावना, ये चारों भ. महावीर के समवसरण में जाकर अपनी-अपनी श्रेष्ठता घोषित करते हैं। इस प्रकार चैतन्य फाग भी छोटीसी रूपकात्मक रचना है। रूपकात्मक (Allegorical) कथा द्वारा इन कवियों ने मराठी में एक नयी विधा स्थापित की है। ___ जैनेतर सम्प्रदायों की अविश्वसनीय मान्यताओं, अन्धविश्वास, अतिरंजित, अस्वाभाविक कथाकल्पनाओं पर व्यंग्य करते हुए हरिभद्रसूरि ने धूर्ताख्यान की रचना की। उसी का पल्लवन धर्मपरीक्षा नामक ग्रन्थ की कथाओं में हुआ है। धर्मपरीक्षा नामक लगभग बीस ग्रन्थ लिखे जा चुके हैं। इनके उद्देश्य के विषय में कवियों ने कहा है कि बुद्धि के अभिमान या पक्षपात से मैंने जैनेतर सिद्धान्तों का खण्डन नहीं किया है। सत्पुरुषों को सुगति प्राप्त हो-यही मेरा उद्देश्य है। मराठी में भी विशालकीर्ति व देवेन्द्रमुनि ने धर्मपरीक्षा लिखी हैं। इस प्रकार इन कथाओं को मराठी में लाकर उसी सदुद्देश्य की पूर्ति की गयी है।
पुण्यास्रव कथाकोष लघुकथाओं का कोश ग्रन्थ है। मुमुक्षु रामचन्द्र की मूल संस्कृत व नागराज की कन्नड रचना के आधार पर जिनसेन ने इसकी मराठी में रचना की। पुण्यास्रव कथाकोष की कथाओं में पौराणिक कथाओं के साथ-साथ अनेक लोक-कथाएँ हैं। भद्रबाहु कथा में चन्द्रगुप्त मौर्य का इतिहास कुछ अंशों में सुरक्षित है। आराधना कथाकोश व सम्यक्त्वकौमुदी भी ऐसी ही लघुकथाओं के कोश हैं।
व्रतकथा एक अन्य प्रकार का कथा-भेद है। मध्ययुग तक व्रत शब्द अहिंसादि के अतिरिक्त उपवास के अर्थ में अधिक प्रयुक्त होने लगा था। भिन्न-भिन्न अवसरों पर किये जाने वाले विविध उपवासों की विधि, उनका फल, उद्यापन विधि व उनसे सम्बद्ध कथाओं के वर्णन इन व्रतकथाओं में हैं। इन कथाओं का प्रारम्भ ‘णाणपंचमी कहाओ' से माना जा सकता है। अपभ्रंश युग में इनका विस्तार हुआ है। मराठी में लगभग पचास से अधिक व्रतकथाएँ लिखी गयी हैं। अनेक कथाएँ अत्यन्त सरस हैं। बहुत सम्भव है कि व्रत के दिन इन कथाओं का मन्दिरों में वाचन हुआ करता रहा होगा।
इन कथाओं के अतिरिक्त मराठी में स्वतन्त्र भवान्तर-कथाएँ भी रची गयी हैं। सभी पुराण-चरित्र आदि में चरितनायकों के पूर्वभव समाहित रहते हैं, परन्तु भवान्तर-कथाओं की स्वतन्त्र रूप से रचना मराठी साहित्य का वैशिष्ट्य है। इनमें मेघराज व गंगादासकृत पार्श्वनाथ भवान्तर, चिमनापण्डितकृत नेमिनाथ भवांतर व छत्रसेनकृत आदिनाथ भवान्तर वैशिष्ट्यपूर्ण हैं। __मराठी में स्तोत्र की रचना भी विपुल-मात्रा में हुई है। ये स्तोत्र संस्कृत भक्तामर आदि के अनुवाद भी के रूप में प्रस्तुत हैं, स्वतन्त्र भी। तीर्थंकरों के अतिरिक्त गोमट स्वामी, पद्मावती व क्षेत्रपाल भी स्तुत्य हैं। स्तुतिकारों में जिनसागर, महीचन्द व चिमनापण्डित प्रमुख हैं। इस काल में स्तुत्य आदर्श के गुणों की प्राप्ति का लक्ष्य न होकर याचना
मराठी जैन साहित्य :: 831
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