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पर भविष्यदत्त बन्धुदत्त पुराण की रचना की है।
जिनसागर की 'लहु-अंकुशकथा' राम के पुत्रों की कथा है। सीता वनवास के बाद लहु-अंकुश के जन्म से उनके मोक्ष तक की सम्पूर्ण कथा है। प्रवाहपूर्ण भाषा, सुन्दर शब्दविन्यास, रोचक संवाद व अनुरूप छन्दोयोजना आदि गुणों से युक्त कथा-काव्य है। राम के पुत्रों पर स्वतन्त्र रूप से रचित सम्भवतः यह प्रथम कथाकाव्य है। रुक्मिणीहरण गेयता-गुण से युक्त एक खण्डकाव्य कहा जा सकता है। गुणकीर्ति का ही नेमिनाथ पाळणा, नेमिनाथ विवाह व नेमिनाथ जिनदीक्षा जीवन के एकदेश का वर्णन होने से खण्डकाव्य कहे जा सकते हैं।
सभी काव्य धर्मकथाएँ हैं। वीरदास ने अपनी कथा को नागरकथा कहा है। अपनी कथा को नागरकथा कहने का उद्देश्य सुन्दर अलंकारपूर्ण साहित्यिक कृति है।
इति सुदरसेन कथासार। गुरु वंदिला धर्मचंद्र।
बोवी बांधता विरसागर। कथा नागर परिसावि।।" विश्व के प्रथम रूपकात्मक प्रबन्ध होने का श्रेय सिद्धर्षिसूरि की 'उपमितिभव प्रपंचा कथा' को है। इसके पश्चात् संस्कृत में जैन व जैनेतर कवियों ने कई प्रतीक नाटकों की रचना की है। पण्डित सूरिजनकृत 'परमहंसकथा' ऐसी ही रूपकात्मक कथा है। इसमें मोह से संग्राम कर विवेक द्वारा परमहंस को मुक्त करने की कथा है। 'मोहराजपराजय' नामक नाटक में भी कुमारपाल द्वारा विवेक की सहायता से मोहराज को पराजित करने का वर्णन है। 'रयणसेहरनिवकहा' नामक प्राकृत काव्य का रूपकात्मक अंश तत्कालीन प्राचीन गुजराती में इस प्रकार है
कायापाटणि हंसराजा फुरइ पवनतलार।
तीणई पाटणि वसइ जोगी जाणइ जोगविचार।' गुजराती कवि जयशेखरसूरि ने 'परमहंसप्रबोध' की रचना की-उपर्युक्त तीनों रचनाएँ गुजराती कवियों की है। प्रतीत होता है कि गुजराती में लिखित ब्रह्म जिनदास के परमंहसरास के आधार पर पं. सूरिजन ने इसकी मराठी में प्रस्तुति की। मराठी में ये दो ही रूपककथाएँ हैं परमहंसकथा और दानशीलतप भावना। परमहंसकथा में रूपक का सुन्दर निर्वाह हुआ है। कायानगरी में परमहंस राजा राज्य करता है। माया के कारण वह बन्दी बन जाता है। विवेक मोह से घनघोर संग्राम कर परमहंस को मुक्त कराता है। यहाँ मुख्यार्थ व व्यंग्यार्थ दोनों का सुन्दर समन्वय हुआ है। मोह माया, विवेक
चेतना आदि अमूर्त पात्र, कलात्मक ढंग से मूर्तित हुए हैं। इस कथा में तत्कालीन राजकीय जीवन प्रतिबिम्बित हुआ है। तराळ (नगररक्षक पहरेदार) से सामान्य जनता आतंकित रहती थी। वह नगर में आने-जाने वाले लोगों पर निगाह रखता था। भिखारियों के
830 :: जैनधर्म परिचय
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