Book Title: Jain Dharm Parichay
Author(s): Rushabhprasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 842
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org मराठी रचनाकारों ने शास्त्रीय ग्रन्थों की भी रचना की है। प्रज्ञाचक्षु यादवसुत ने विविध वृत्तों में 222 पद्यों में अष्टकर्मप्रकृति नामक ग्रन्थ की रचना की है। कर्मसिद्धान्त पर मराठी में यह एकमात्र कृति है । ज्ञानोदय तीन अध्यायों में 100 ओवी में आत्मज्ञान की प्राप्ति का विवेचन है । 'आत्मख्याति' आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार ग्रन्थ पर अमृतचन्द्राचार्य कृत 'आत्मख्याति' टीका का मराठी रूपान्तर है । जिनसेन व रत्नकीर्ति दोनों ने अपने उपदेश - रत्नमाला ग्रन्थों में श्रावक के षट्कर्मों का उपदेश दिया है। जिनकथा या जिनागमकथा में छहकाल, चौबीस तीर्थंकर व बारह अंगों का संक्षिप्त विवरण है। दिलसुख ने अपने 'स्वात्मविचार' नामक ग्रन्थ में विविध दर्शनों के आत्म विषयक विचारों की समीक्षा की है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शास्त्रीय ग्रन्थों में धर्मामृततत्त्वसार गद्यात्मक है, जिसमें श्रावक की आचार-संहिता के साथ लोकरचना, गणित, तीर्थ तत्त्ववर्णन आदि का भी संक्षिप्त वर्णन है । इसके नामकरण पर पं. आशाधरजी के धर्मामृत का प्रभाव प्रतीत होता है। भाषा, सांस्कृतिक इतिहास आदि के दृष्टिकोण से यह महत्त्वपूर्ण है। धर्मामृत, रत्नकरण्ड श्रावकाचार की मराठी टीका, स्वात्मविचार व आत्मख्याति आदि ये ग्रन्थ गद्य में हैं । रत्नकरण्ड श्रावकाचार की यह टीका संस्कृत टीका के अनुरूप मूल मुद्दों का स्पर्श करने वाली है। शास्त्रीय ग्रन्थों की गद्यशैली प्रौढ़, अर्थगर्भ, स्पष्ट व मार्मिक है। परमहंसकथा चम्पूकाव्य का गद्य चूर्ण शैली का है। प्रायः सभी कवि बहुश्रुत व बहुभाषाविद थे। संस्कृत, प्राकृत, कन्नड़, हिन्दी, गुजराती आदि भाषाओं के उत्तम ज्ञाता थे। अनेक कवियों ने दो या दो से अधिक भाषाओं में रचना की है। गुजराती - कन्नड से इस साहित्यिक आदान ने सांस्कृतिक सम्बन्धों को दृढ़ किया है। ये दोनों नये प्रवाह मराठी को इन्हीं कवियों ने दिये हैं। सभी साहित्यकार साहित्यरचना के प्रति सतर्क थे। उन्होंने अपने कवित्व के परिमार्जन के लिए शब्दकोश, छन्द, महाकाव्य, व्याकरण, तर्क, संगीत सभी का निष्ठा से अध्ययन किया है। जैन शास्त्र व साहित्य के तो अध्येता थे ही। इन्होंने अपने को सरस्वती का कृपापात्र कवीश्वर माना है । जैनाचार्य रसास्वाद को ब्रह्मानंदसहोदर नहीं मानते, वह मोहनीय कर्म के उदय का परिणाम है। 14 कहाँ तो रसास्वाद के लिए चित्त वासनायुक्त (सवासन) होना अनिवार्य है, तो दूसरी ओर आत्मानन्द जो वीतराग (वासनामुक्त) चित्त में ही सम्भव है । रसास्वाद से भी विवेकी मनुष्य को संसार का वास्तविक स्वरूप जानना चाहिए । अतः इन कवियों का शृंगार - वर्णन साहित्यसर्जना की अनिवार्यता है, शृंगार के नीचे सर्वत्र वैराग्य की धारा है । विप्रलम्भ शृंगार के आश्रय राजीमती व अंजनापवनंजय हैं। सुदर्शन चरित्र में शृंगाराभास के दर्शन होते हैं। युद्धप्रसंगों में वीर रस जम्बूस्वामीचरित्र, श्रेणिकचरित, पद्मपुराण आदि में है । करुण चेलना के विलाप में पद्मपुराण में, हास्य मराठी जैन साहित्य :: 833 -- For Private And Personal Use Only

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