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कत्ति आदि कन्नड़ शब्दों का प्रयोग हुआ है । सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, कर्मप्रकृति, मोहनीय, क्षायिक आदि जैन दर्शन के पारिभाषिक शब्दों से मराठी को समृद्ध किया है।
मराठी की प्रादेशिक बोलियों बरारी (विदर्भ प्रदेश की वन्हाडी) व अहिराणी (खानदेश की बोली) के प्राचीन रूप भी इन रचनाओं में देखे जा सकते हैं । नीबा रचित दो गीत हैं, एक अहिराणी गीत, जिसमें श्रीपुर के अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ की स्तुति है ।
श्रीपुर नग्र सुहावने सहिए। तठे स्वामि जीन पास । नीलवरन सरिर वो त्यान्हा । सोहे वो उग्रवंस ||
सुहावने, सहिए, त्यान्हा, सोहे आदि शब्द हिन्दी के आसपास है । आगे भी इस तरह 'मननी आस' 'मे देखा' आदि प्रयोग हैं।"
विदर्भ प्रदेश के कवियों की प्रौढ़ संस्कृतनिष्ठ भाषा पर भी वन्हाडी बोली का प्रभाव है। खुडिका, फासुक, रिछिनी, बिंझगिरी, लहु, दुल्लभ, साहमी जैसे अपभ्रंश शब्द भी प्राचीन जैन मराठी में हैं। अनेक लोकोक्तियों व मुहावरों से परिपूर्ण भाषा का प्रयोग है।
मुद्रणकला से वर्तमान युग में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ है। 1850 के बाद अनेक जैन पत्र-पत्रिकाएँ मराठी में प्रकाशित हुईं। इस युग में भी मुख्य कार्य अन्य भाषाओं से मराठी में अनुवाद कार्य प्रमुख है। मराठी संस्कृति में रचे-बसे सेठ हीराचंद नेमचन्द दोशी हैं। इन्होंने जैनबोधक मासिक पत्रिका का प्रारम्भ किया। स्वरचित 'जैन धर्माची माहिती' के साथ अन्य समाज में जागृति करने वाली पुस्तकों की रचना की । इनकी दूसरी पीढ़ी में जीवराज गौतमचन्द दोशी ने तत्त्वार्थसूत्र, आत्मानुशासन व तत्कालीन विद्वानों के हिन्दी ग्रन्थों का मराठी अनुवाद किया। तीसरी पीढ़ी के रावजी सखाराम दोषी ने मराठी अनुवाद का काम आगे बढ़ाया। इसी परिवार की कंकुबाई ने भी अनुवाद का कार्य किया । ब्र. जीवराज जी ने अपनी समस्त सम्पत्ति का दानकर जैन संस्कृति संरक्षक संघ की स्थापना की। इसकी जीवराज जैन ग्रन्थमाला ने 50 से अधिक ग्रन्थ प्रकाशित किये हैं। वर्धा के नेमचन्द व गणपतराव चवडे ने जिस काल में मराठी में 'संगीत सौभद्र', 'संगीत शाकुन्तल' आदि रूप में संस्कृत नाटकों के अनुवाद लिखे जा रहे थे, तब संगीत सुशीलमनोरमा, संगीत गर्वपरिहारनाटक व अनेक कृतियों की रचना की। जैनबन्धु मासिक पत्रिका का प्रकाशन किया । बालचन्द कस्तूरचन्द गांधी, धाराशिव (उस्मानाबाद) ने कृष्णाजी नारायण जोशी के संस्कृत काव्य व शास्त्रों के अनुवाद प्रकाशित किए। नाना रामचन्द्र नाग ने जैनधर्म स्वीकार कर अनेक ग्रन्थों के अनुवाद व छात्रोपयोगी साहित्य की सर्जना की। कल्लप्पा भरमाप्पा निटवे, कोल्हापुर, जैनेन्द्र मुद्रणालय के संचालक थे। इन्होंने जैनों के प्रमुख संस्कृत ग्रन्थों का मराठी
मराठी जैन साहित्य :: 835
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