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मराठी जैन साहित्य
__ डॉ. कुसुम पटोरिया, नागपुर
प्रायः सभी भारतीय भाषाओं की भाँति मराठी भाषा व साहित्य के विकास में जैनाचार्यों की उल्लेखनीय भूमिका है। श्री र. कुलकर्णी के अनुसार मराठी की गर्भावस्था से जैनों का मराठी से सम्बन्ध है। जैनों ने मराठी के बचपन का पालन-पोषण किया है।' मराठी के अस्तित्व के संकेत आठवीं शताब्दी से मिलते हैं। कोऊहलकवि अपनी लीलावईकहा को 'मरहट्ठ-देवि-भासा' में रचित कहते हैं, तो उद्योतन सूरि 'मरहट्ठ-भासा' का उसकी विशेषताओं सहित उल्लेख करते हैं। श्रवणबेलगोल का 'श्रीचावुण्डराएँ करवियलें' लेख तथा कन्नड महाकवियों के काव्यों में मराठी वाक्यों के प्रयोग मराठी के प्रसार को सूचित करते हैं।
मराठी के आद्यग्रन्थ होने का श्रेय श्रीपति (10वीं शताब्दी) द्वारा संस्कृत में रचित ज्योतिपत्नमाला की मराठी टीका को है, जो महाकवि अभिमानमेरु पुष्पदन्त के भतीजे थे। उपलब्ध मराठी जैन साहित्य का आरम्भ 15वीं शताब्दी से होता है। उल्लेखनीय है कि आरम्भिक कृतियों में मराठी भाषा के लिए 'देसभाषा', 'म्हराष्ट्रि' 'मागधी' 'मराष्ट भाषा' मन्हाष्ट' आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है।
मराठी में रचना करने का उद्देश्य स्वयं ग्रन्थकारों ने शिष्यों को धर्मोपदेश व जैन कथाओं का ज्ञान कराना, जनकल्याण, मिथ्यात्व का अपसारण, धर्मप्रभावना, श्रावकों पर उपकार के साथ स्वकल्याण, भक्ति में जीवन-यापन करके मन की चंचलता को रोकना व मोक्षमार्ग में लगाना आदि बताया है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए पूर्व साहित्य से प्रेरित व अनूदित साहित्य की निर्मिति अधिक हुई। इस समय जैन समाज को बृहत्तर समाज से वेदविरोधी नास्तिक के रूप में उपेक्षा मिल रही थी। वह-स्वयं अपने धर्म से अनभिज्ञ था। अतः अनायास ही हिन्दू धर्म में रूपान्तरित होते हुए जैन समाज को अपने धर्म में स्थिर करना समय की आवश्यकता थी, जिसके परिणामस्वरूप भट्टारकों के इस युग में पण्डित भट्टारकों व उनके शिष्यों द्वारा मठों व मन्दिरों में रहकर पुराने साहित्य के संरक्षण का महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पन्न हुआ।
मराठी जैन साहित्य का आरम्भ प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, गुजराती, हिन्दी, कन्नड
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