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दार्शनिक चर्चा की गयी है और अन्य दर्शनों का निराकरण करते हुए जैन मत को प्रतिष्ठापित किया गया है । इसके अतिरिक्त, जैन दर्शन के मूलभूत सिद्धान्त अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, सप्तभंगी, नयवाद आदि की भी संक्षिप्त चर्चा की गयी है। 'अन्ययोगव्यवच्छेदिका' द्वात्रिंशतिका पर आचार्य मल्लिषेण ने 'स्याद्वादमंजरी' नामक विस्तृत टीका लिखी, जिसमें विविध दार्शनिक मतों की प्रौढ़ तार्किक शैली से समीक्षा की गयी है और युक्ति पुरस्सर स्याद्वाद की महत्ता को प्रतिष्ठापित किया गया है। इस कृति को भी विद्वानों में विशेष आदर प्राप्त है
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आचार्य हेमचन्द्र की दूसरी कृति 'प्रमाणमीमांसा' है, जो अपूर्ण रूप में प्राप्त है। प्रथम अध्याय को दो आह्निकों में विभक्त किया गया है। ग्रन्थ में उपलब्ध सूत्रों की संख्या 100 है, जिन पर ग्रन्थकार की स्वोपज्ञ वृत्ति भी है । ग्रन्थ में प्रमाण व प्रमेय का विस्तृत विवेचन है और प्रमाणशास्त्रीय दृष्टि से इस ग्रन्थ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें यत्र-तत्र ग्रन्थकार का मौलिक चिन्तन भी अभिव्यक्त हुआ है।
आचार्य हेमचन्द्र के बाद अभिनव धर्मभूषण यति (14-15वीं शती) हुए, जिन्होंने 'न्यायदीपिका' नामक एक मौलिक न्यायसम्बन्धी ग्रन्थ रचा। यह ग्रन्थ भी जैन न्याय के अध्येताओं के लिए अत्यन्त उपयोगी है। जैन परम्परा में नव्यन्याय शैली को प्रतिष्ठापित करनेवाले आचार्य के रूप में उपाध्याय यशोविजय (ई. 18वीं शती) कहे जाते हैं, जिन्होंने अनेक तर्कप्रधान ग्रन्थों की रचना की। इनकी प्रमुख न्याय- -विषयक संस्कृत कृतियाँ है - जैन तर्कभाषा, अनेकान्तव्यवस्था, सप्तभंगीनयप्रदीप, नयप्रदीप, नयोपदेश, नयरहस्य, ज्ञानबिन्दु, ज्ञानसारप्रकरण, अनेकान्तप्रवेश, वादमाला, आदि। इसके अतिरिक्त न्यायखण्डखाद्य व न्यायालोक - जैसी उनकी कृतियाँ नव्यन्यायशैली का प्रतिनिधित्व करती हैं। आचार्य विद्यानन्दि - कृत अष्टसहस्री पर इनके द्वारा रचित 'विवरण' भी प्राप्त होता है। ई. 18वीं में ही नरेन्द्रसेन नामक जैन तार्किक हुए, जिन्होंने 'प्रमाणप्रमेयकलिका' नामक लघु ग्रन्थ लिखा, जिसमें प्रमाण व प्रमेय-सम्बन्धी विविध मान्यताओं की सयुक्ति आलोचना- प्रत्यालोचना कर जैन सिद्धान्त की प्रतिष्ठापना की गयी है ।
इस प्रकार ईस्वी प्रथम-द्वितीय शती से लेकर अठारहवीं शती तक संस्कृत में जैनन्याय साहित्य का सृजन होता रहा है और आधुनिक युग में भी यह परम्परा प्रवर्तित है। इस प्रसंग में आचार्य तुलसी द्वारा रचित 'भिक्षुन्यायकर्णिका', 'जैनसिद्धान्तदीपिका' आदि ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं।
स्तुति - साहित्य व पुराणसाहित्य की परम्परा
जैन आचार्यों ने काव्य की अनेक विधाओं में संस्कृत साहित्य का निर्माण किया है । संस्कृत काव्य - निर्माण की दृष्टि से आचार्य समन्तभद्र व आचार्य सिद्धसेन जैसे
798 :: जैनधर्म परिचय
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