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आवश्यक मानते हैं-लोक, देश, पुर, राज्य, तीर्थ, तप, गति व फल।
कन्नड़ जैन पुराणकर्ताओं को प्राकृत व संस्कृत पुराणों से प्रेरणा मिली। एक लौकिक और एक धार्मिक काव्य लिखने की यह प्रथा, आगे के जैन कवियों द्वारा जारी रखी गयी। लौकिक काव्य में, अपने आश्रयदाता को काव्य के नायक के साथ समीकरण करके काव्य लिखने की परम्परा, आदिकवि पम्प से लेकर बहुतेक जैन कवियों ने अपनाई है।
कन्नड़ कवियों ने 9वीं से 11वीं सदी तक हळगन्नड़ के चम्पू छन्द में तीर्थंकरों के पुराण रचे। काव्यों में उन्होंने पुराणों के बारे में अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। पम्प कवि के अनुसार पुराण की रचना व पठन कर्मनिर्जरा और पुण्यप्राप्ति का कारण है -
पेसर्गोडिंद्रनरेंद्रवंधननोरल्देत्तानुमोरोर्मे चिं तिसिद्रोंगं पवणिल्लं पुण्यमेने पूण्दोल्पिंदंमोरंते भा विसि तां तन्मयनागि तच्चरितमं काव्यंगळोळ्कूडे बं ण्णिसिपेळ् दातन कर्मनिर्जरेयनंतिंतुंतेनल् बर्षामे 1-37॥
(आदिपुराण) [इन्द्र, नरेन्द्रों से वन्दित जिनेश्वर को एक बार स्मरण करने वाले को अगणित पुण्य प्राप्त होता है, तो जिनेश्वर के चरित को काव्य रूप में बताने वाले के तो पूर्ण रूप से कर्म निर्जरा होती है]
कवि जन्न के अनुसार पुराण 'अरुहन मूर्तियंते निराभरण' [अर्हन्त की मूर्ति की तरह निरलंकृत] और 'बाळबट्टेय परमागम' [जीवन पथ का अन्तिम चरण] ।
प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ के पुराण को कन्नड़ के आदिकवि व महाकवि पम्प ने 941 ई. में रचा है। आदिपुराण के 16 आश्वासों (अध्यायों) में ऋषभनाथ के 10 पूर्वभवों के कथानक, तीर्थंकर भव के पाँचों कल्याणकों का सरस चित्रण है। तत्त्व, कालविचार, कुलकरों का वर्णन, स्वर्गों का वर्णन आदि शास्त्रानुसार है। ललितांग व स्वयम्प्रभा के प्रेम, विरह, वज्रजंघ-श्रीमति का सहमरण, ऋषभनाथ के जन्माभिषेक इत्यादि का वर्णन रसपूर्ण शैली में किया गया है। नीलांजना नृत्य और ऋषभनाथ के वैराग्योदय का प्रसंग तो, कन्नड़ साहित्य में कलात्मक व अविस्मरणीय माना गया है।
भरत और बाहुबलि के उपाख्यान में भरत का गर्व, बाहुबलि का अभिमान, दोनों का आमना-सामना, बाहुबलि का मनःपरिवर्तन अत्यन्त नाटकीय रूप में प्रस्तुत किया गया है।
तीन प्रकार के धर्मयुद्ध में बाहुबलि से पराजित होकर भरत चक्ररत्न को बाहुबलि पर प्रयोग करता है। चक्ररत्न बाहुबलि को प्रदक्षिणा करके उसके पास खड़ा हो जाता है । तब शरम से सिर झुकाकर खड़े हुये भरत को सम्बोधित करके बाहुबलि कहता है
नेलसुगे निन्न वक्षदोळे निश्चलमीभटखडूगमंड्लो त्पलवनविभ्रम भ्रमरियप्प मनोहरि राज्यलक्ष्मि भू
810 :: जैनधर्म परिचय
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