Book Title: Jain Dharm Parichay
Author(s): Rushabhprasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 804
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir की प्रमाण- चर्चा के आलोक में अपनी प्रमाण सम्बन्धी मान्यता को इस प्रकार सुव्यवस्थित रूप में प्रस्तुत किया जाए, ताकि प्रबल युक्ति व तर्क के आधार पर उसकी श्रेष्ठता स्थापित हो सके । अन्य दर्शनों की ओर से प्रयुक्त किये जा रहे कटूक्तिपूर्ण आक्षेपों का प्रत्युत्तर देना भी जैन आचार्यों के लिए आवश्यक - सा हो गया था । ऐसी स्थिति में आचार्य अकलंक (ई. 7-8) एक सशक्त न्याय- प्रतिष्ठापक के रूप में आगे आये । जैन न्याय को एक व्यवस्थित रूप देने के कारण उन्हें जैन-न्याय का प्रवर्तक कहा जाता है । उनके द्वारा प्रस्थापित जैन न्याय-पद्धति का ही अनुसरण या विस्तार परवर्ती जैन आचार्यों द्वारा किया गया है । 'लघीयस्त्रय', 'न्यायविनिश्चय', 'सिद्धिविनिश्चय' 'प्रमाणसंग्रह' – इन चार मूल ग्रन्थों के अलावा उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र पर तत्त्वार्थराजवार्तिक नामक टीका भी लिखी है। इसके अतिरिक्त आप्तमीमांसा पर उनकी अष्टशती नामक टीका भी प्राप्त है। सभी ग्रन्थ तार्किक शैली का आधार लेकर विषय का निरूपण करते हैं। प्रथम कृति 'लघीयस्त्रय' तीन प्रकरणों का एक संग्रह है, जिनके नाम हैं- प्रमाणप्रवेश, नयप्रवेश और प्रवचनप्रवेश। इस पर 'न्यायकुमुदचन्द्र' (लघीयस्त्रयालंकार) नामक टीका आचार्य प्रभाचन्द्र (ई. 10-11 ) द्वारा लिखी गयी है, जो टीकाग्रन्थ होते हुए भी जैन न्याय के एक अद्वितीय मौलिक व प्रामाणिक ग्रन्थ की तरह ही विद्वत्समाज में आदृत हैं। आचार्य अकलंक के 'सिद्धिविनिश्चय' पर आचार्य अनन्तवीर्य ( ई. 10वीं शती) ने टीका लिखकर ग्रन्थ के गूढ़ रहस्यों को उद्घाटित कर जैन न्याय - शास्त्र का महान् उपकार किया है। 'न्यायविनिश्चय' में प्रत्यक्ष, अनुमान व आगम- इन तीन प्रमाणों का सयुक्तिक विवेचन किया गया है । यद्यपि इस ग्रन्थ की मूलप्रति अप्राप्य है, किन्तु वादिराज सूरि (13वीं शती) द्वारा रचित 'विवरण' नाम की टीका के आधार पर इसका उद्धार किया गया है । 'प्रमाणसंग्रह' में प्रमाणसम्बन्धी शास्त्रीय चर्चा है । इसमें प्रमाण, नय व निक्षेप का विवेचन है । सम्भवतः यह अकलंक की अन्तिम रचना है। इसमें प्रत्यक्ष, अनुमान आदि के स्वरूप, हेतु व हेत्वाभास, वाद लक्षण, सप्तभंगी व नयों के स्वरूप आदि समस्त प्रमाण-सम्बन्धी पक्षों का स्पष्टीकरण किया गया है। इसी तरह सिद्धिविनिश्चय में प्रत्यक्षसिद्धि, सविकल्पसिद्धि, प्रमाणान्तरसिद्धि, जीवसिद्धि आदि प्रस्तवों के अन्तर्गत प्रमाण आदि का विवेचन किया गया है। इन मौलिक ग्रन्थों के अतिरिक्त तत्त्वार्थसूत्र की टीका 'तत्त्वार्थराजवार्तिक' में भी प्रसंगवश न्यायशास्त्रीय विषयों पर तार्किक शैली से विवेचन उपलब्ध है । आचार्य अकलंक के बाद जैन न्याय- परम्परा को सुदृढ़ आधार देने का श्रेय श्वेताम्बर आचार्य हरिभद्र (ई. 7-8 ) तथा दिगम्बर आचार्य विद्यानन्दि (ई. 8-9 ) को है । आचार्य हरिभद्र के संस्कृत में जैन- न्याय सम्बन्धी प्रमुख ग्रन्थ हैं - 'अनेकान्तजयपताका' (स्वोपज्ञ संस्कृत साहित्य - परम्परा :: 795 For Private And Personal Use Only

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