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समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया है। इस प्रकार इस ग्रन्थ को अनेकान्त-व्यवस्था की एक आधारभूत कृति कहा जा सकता है। आप्तमीमांसा (देवागमस्तोत्र) पर दो महत्त्वपूर्ण टीकाएँ लिखी गयीं- भट्ट अकलंक (ई. 7-8वीं) द्वारा रचित 'अष्टशती', तथा आचार्य विद्यानन्दि (ई. 8-9वीं) द्वारा रचित 'अष्टसहस्री', (जो अष्टशती को आत्मसात् कर लिखी गयी है)। अष्टसहस्री ग्रन्थ अपनी प्रौढ़ता, दुरूहता व गम्भीरता के कारण 'कष्टसहस्री' नाम से भी ख्यात है। अष्टसहस्री पर भी संस्कृत में टीका आदि लिखी गयीं, जिनमें लघु समन्तभद्र (ई. 13) द्वारा रचित अष्टसहस्रीविषमपदतात्पर्य टीका तथा उपाध्याय यशोविजय (18वीं शती) द्वारा रचित टिप्पणी उल्लेखनीय हैं। आचार्य समन्तभद्र के दूसरे (64 संस्कृत पद्यों वाले) ग्रन्थ 'युक्त्यनुशासन' में भगवान् महावीर की स्तुति के माध्यम से अनेकान्तवाद-सप्तभंगीवाद का निरूपण करते हुए अन्य एकान्तवादी दर्शनों का निराकरण किया गया है और जिनेन्द्र-शासन को ही 'सर्वोदयी तीर्थ' रूप में उद्घोषित किया गया है। उनके तीसरे (143 संस्कृत श्लोकों वाले) ग्रन्थ 'स्वयम्भू स्तोत्र' में चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति के माध्यम से गम्भीर दार्शनिक चर्चा प्रस्तुत की गयी है। इस ग्रन्थ में भी स्याद्वाद व अनेकान्तवाद की सयुक्तिक स्थापना की गयी है। अनेकान्त में भी अनेकान्त दृष्टि सार्थक हो सकती है-यह बताकर इस ग्रन्थ में अनेकान्तवाद के आधार को अधिक सुदृढ़ता प्रदान की गयी है।
आचार्य सिद्धसेन आगम व हेतुवाद- दोनों की स्वतन्त्रता के पक्षधर थे। उनके मत में आगमसिद्ध अतीन्द्रिय पदार्थों को हेतु या तर्क से अतीत भले ही मान लें, किन्तु इन्द्रियगम्य विषयों को हेतुवाद (तर्क) के आधार पर जानना-समझना न्यायसंगत है। इस वैचारिक पृष्ठभूमि में उनका 'न्यायावतार' ग्रन्थ बत्तीस कारिकाओं में निबद्ध है और प्रमाणशास्त्रीय चर्चा की दृष्टि से प्रथम ग्रन्थ माना जाता है। इनसे पूर्ववर्ती आचार्य, उमास्वामी (उमास्वाति) अपनी कृति तत्त्वार्थसूत्र में ज्ञान व प्रमाण का समन्वय प्रस्तुत कर चुके थे। आचार्य सिद्धसेन ने इस ग्रन्थ में प्रमाण, प्रमाता, प्रमेय व प्रमिति- इन चारों तत्त्वों की जैनदर्शन-सम्मत व्याख्या प्रस्तुत की और अनुमान के हेतु आदि अंगों का एक संक्षिप्त व्यवस्थित रूप प्रस्तुत किया, जो परवर्ती आचार्यों द्वारा पल्लवित, परिष्कृत, विकसित आदि होता रहा। उन्होंने दार्शनिक चर्चा में अनुमान का जो लक्षण प्रस्तुत किया, वही परवर्ती तार्किकों द्वारा आधार रूप से मान्य रहा है।
इसी क्रम में आचार्य मल्लवादी (ई. 4-6 शती) द्वारा रचित 'द्वादशारनयचक्र' नामक ग्रन्थ भी जैन न्याय की एक महत्त्वपूर्ण कृति है। इस पर सिंहसूरिगणि कृत वृत्ति है, जिसके आधार पर ही इसका उद्धार हो पाया है।
दार्शनिक जगत् में अनेकान्तदर्शन की दार्शनिक चर्चा ने क्रमश: व्यापक स्वरूप धारण किया। दूसरी तरफ जैन परम्परा में यह आवश्यकता समझी जाने लगी कि अन्य दर्शनों
794 :: जैनधर्म परिचय
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