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प्रदान की गयी। ऐसा प्रतीत होता है कि संस्कृत-नाटिका का परिवर्तित रूप ही प्राकृतसट्टक है। नाट्य-शास्त्र में वर्णित नाटिका के प्रायः समस्त लक्षण सट्टक-ग्रन्थों में सन्निहित हैं।
इन सट्टकों का नायक स्त्रैण एवं विलासी प्रकृति का राजा होता है, जो राज्य का भार अपने मन्त्री को सौंपकर अन्त:पुर में विलास-क्रीडाएँ करता रहता है।
सट्टक में नाटिका के समान अंक, प्रवेशक एवं विष्कम्भक नहीं होते। अंक को 'जवनिका' कहा जाता है। समस्त सट्टक चार जवनिकान्तरों में विभक्त होते हैं। ये भंगार-रस प्रधान होते हैं और इनमें रौद्र-रस का अभाव होता है। इसके अतिरिक्त अन्य रस गौण रहते हैं। वीर, भयानक एवं वीभत्स रसों का प्रयोग कमतर रहता है। अद्भुतरस अनिवार्यतः होता है। सट्टक का नाम नायिका के नाम पर रखा जाता है।
ईसा पूर्व 200 वर्ष के आसपास उत्कीर्णित भरहत के एक शिलालेख में 'साडिक' शब्द का उल्लेख मिलता है। जो नृत्य के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। नाट्य-शास्त्रियों के अनुसार सट्टक शब्द उसी का परवर्ती रूप है। महाकवि शारदातनय ने भी सट्टक को नृत्य-भेदात्मक कहा है। कुल मिलाकर सट्टक' शब्द का क्रमिक-विकास कर्पूरमंजरी' (राजशेखर, 10वीं सदी) एवं अन्य सट्टकों में मिलता है।
जैन स्तोत्र-साहित्य
अन्य विधाओं में प्राकृत-भाषात्मक जैन स्तोत्र-साहित्य भी विशाल, सरस एवं हृदयस्पर्शी है। इसमें आत्मविश्वास और आत्मविस्मृति गहरे रूप में अंकित है। उनमें भावुकता एवं हृदय की तरलता इतनी सघन है कि उन्हें प्राकृत काव्य-श्रेणी में परिगणित किये बिना नहीं रहा जा सकता। अपभ्रंश : लक्षण-शास्त्रियों की दृष्टि में ___ भाषा-शास्त्रियों ने तीसरी कोटि की प्राकृत को अपभ्रंश कहा है। कुछ लक्षणशास्त्रियों के अनुसार अपभ्रंश एक भ्रष्ट भाषा है, किन्तु अपभ्रंश-भाषा-विशेषज्ञ इस कथन से सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार यह (अपभ्रंश) वह भाषा है, जिसकी शब्दावली एवं वाक्य-विन्यास संस्कृत-शब्दानुशासन के नियमों और उपनियमों से अनुशासित नहीं
और जो शब्दावली देशी-भाषाओं में प्रचलित है तथा संस्कृत के शब्दों के यथार्थ उच्चरित न होने के कारण कुछ विकृत रूप में उच्चरित है, वही शब्दावली अपभ्रंश-भाषा के अन्तर्गत आती है। अतः अपभ्रंश वह भाषा है, जिसमें प्राकृत की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक देशी शब्द उपलब्ध हैं तथा वाक्य-रचना एवं अन्य कई दृष्टियों से सरलीकरण तथा देशीकरण की प्रवृत्ति अधिकतर प्राप्त होती है और जिसकी शब्द-राशि महर्षि
प्राकृत-अपभ्रंश साहित्य-परम्परा :: 781
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