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संस्कृत साहित्य-परम्परा
डॉ. दामोदर शास्त्री
जैन परम्परा का मूल आगम-साहित्य प्राकृत भाषा में निबद्ध है। प्रारम्भ से ही इस परम्परा में प्राकृत भाषा को सर्वाधिक आदर-सत्कार दिया जाता रहा है, किन्तु कालक्रम से धर्मप्रचार एवं धर्मप्रभावना के उज्ज्वल भविष्य को दृष्टि में रखकर, जैन आचार्यों ने संस्कृत आदि भाषाओं में भी प्रचुर मात्रा में साहित्य रचा, जो उनके उदार दृष्टिकोण को अभिव्यक्त करता है। आगमों की व्याख्या में संस्कृत को प्रतिष्ठा मिली, और इसमें क्रमशः संवर्धन के साथ अनेक मौलिक संस्कृत ग्रन्थ रचे गये। इन ग्रन्थों ने साहित्यसर्जन के विविध आयामों को स्पष्ट किया।
जैन दर्शन व न्याय के क्षेत्र में संस्कृत भाषा में रचे गये प्रौढ़ ग्रन्थों की एक अनवरत उच्चस्तरीय परम्परा रही है, जिसमें अनेकान्तवाद की स्थापना के अलावा, अन्य दार्शनिक सिद्धान्तों के खण्डन-मण्डन की तत्कालीन दार्शनिक प्रवृत्ति का भी प्रमुख दर्शन होता है। जैन धर्म, जैन आचार, नैतिक उपदेश, अध्यात्मसाधना आदि अनेक क्षेत्रों में संस्कृत ग्रन्थ रचे गये, तो अलंकार, छन्दशास्त्र, व्याकरण, साहित्य आदि विविध विषयों में लाक्षणिक शास्त्रों की भी रचना हुई। संस्कृत कोशग्रन्थ भी प्रकाश में आये। ऐतिहासिक, पौराणिक, चरित-काव्य व मुक्तक-काव्यों की रचना के साथ-साथ कथा व स्तुति जैसे सरस ग्रन्थों तथा कर्म-बन्ध, गणित व ज्योतिष आदि नीरस विषयों पर प्रौढ़ व दुरूह ग्रन्थ भी रचे गये। इस प्रकार, यह परम्परा इतनी समृद्ध है और रचा गया साहित्य इतनी प्रचुर मात्रा में है कि उसे एक प्रकरण या अध्ययन में समेट पाना कठिन है, अतः इसकी एक संक्षिप्त झलक ही प्रस्तुत करना यहाँ सम्भव है, किन्तु सर्वप्रथम यह बताना आवश्यक है कि प्राकृतानुरागी जैन-परम्परा में संस्कृत साहित्य की परम्परा का सूत्रपात किस तरह एवं किस परिस्थिति में हुआ।
भारतीय संस्कृति में आदरणीय भाषा को 'देवभाषा' नाम से पुकारा गया। वैदिक परम्परा में संस्कृत भाषा को 'देवभाषा' के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त थी, तो जैन परम्परा में 'प्राकृत' को। चूँकि परमाधिदेव तीर्थंकर (भगवान् महावीर) के उपदेश की भाषा प्राकृत है, इसलिए इसे ही 'देवभाषा' (या दिव्यभाषा) के रूप में मान्य किया जाना
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