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भाषाओं का विकास हुआ। इनमें से गुजराती एवं राजस्थानी शौरसेनी की
नागर-अपभ्रंश-श्रेणी की मानी गयीं। (2) मागधी एवं अर्धमागधी-अपभ्रंश- जिनसे बिहारी, मैथिली, बांग्ला, असमिया
एवं उड़िया का विकास हुआ। इसी प्रकार(3) महाराष्ट्री-अपभ्रंश से मराठी, (4) ब्राचड-अपभ्रंश से सिन्धी, तथा (5) केकय-अपभ्रंश से लहँदा, दरद जैसी आधुनिक भारतीय भाषाओं का
विकास हुआ। इस प्रकार अपभ्रंश-भाषा का अपना ऐतिहासिक महत्त्व है, क्योंकि वह आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की जननी के रूप में प्रतिष्ठित हुई।
निष्कर्ष रूप में कहना चाहें, तो यह कह सकते हैं कि साहित्य के बहु-आयामी निर्माण, विकास एवं सर्वांगीण बनाने के लिए सार्थक प्रयत्न में जैन-कवियों, सन्तसाधकों, साध्वियों, विदुषी महिलाओं, इतिहासकारों, समीक्षकों तथा विविध-पक्षीय, चिन्तक-लेखकों के योगदानों की निरन्तरता ऐतिहासिक रही है। उनका वैशिष्ट्य यह रहा कि उनके लेखन में उत्तेजना के स्थान पर प्रेरणा, अनुशासन, सह-अस्तित्व, सर्वोदय, पंचशील एवं विश्वमैत्री की भावना को जन-जन में जाग्रत करने का मूल उद्देश्य रहा
और उसकी इस प्रवृत्ति ने उसे विश्व-साहित्य की श्रेणी में प्रतिष्ठित करने के लिए योग्य भूमिका तैयार की है।
786 :: जैनधर्म परिचय
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