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को ही उसका स्रोत माना है। नमि साधु ने मगध में भी अपभ्रंश के प्रचार का उल्लेख किया है। इस कथन से यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि अपभ्रंश, लोकभाषा का रूप ग्रहण कर रही थी और देश-विशेष के कारण उसमें अनेक शाखाएँउपशाखाएँ उत्पन्न हो रही थीं ।
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उपर्युक्त तथ्यों का सूक्ष्म अध्ययन करने से यह स्पष्ट विदित होता है कि ई. पू. दूसरी सदी से जहाँ अपभ्रंश का नामोल्लेख मात्र मिलता था और अपाणिनीय शब्दों के अतिरिक्त वाले शब्दों को अपभ्रष्ट, विकृत या अशुद्ध शब्द अपभ्रंश की संज्ञा प्राप्त करते थे, वहीं ईस्वी सन् की 6ठी - 7वीं सदी तक वह एक साहित्यिक भाषा के रूप में प्रचलित हो गयी और 10वीं - 11वीं सदी तक वह एक सशक्त एवं समृद्ध-- भाषा के रूप में विकसित हो गयी। इस कारण इतिहासकारों ने उसे अपभ्रंश भाषा और उसके साहित्य का स्वर्णकाल माना है। तत्पश्चात् वही आधुनिक देश्यभाषाओं के रूप में विकसित होने लगी, यद्यपि अपभ्रंश - साहित्य की रचना 15वीं 16वीं सदी तक चलती रही ।
अपभ्रंश - साहित्य का प्रारम्भ मुक्तकों से
समीक्षकों के अनुसार अपभ्रंश - साहित्य मुक्तक-काव्य से प्रारम्भ होकर प्रबन्धकाव्य शैली में पर्यवसान को प्राप्त हुआ । यतः भारतीय साहित्य की परम्परा मुक्तक से प्रारम्भ हुई प्राप्त होती है। प्रारम्भ में जीवन यथार्थतः किन्हीं एक-दो भावनाओं के द्वारा ही अभिव्यंजित किया जाता है, पर जैसे-जैसे ज्ञान और संस्कृति के संसाधनों का विकास होने लगता है, जीवन भी विविधमुखी होकर साहित्य के माध्यम से प्रस्फुटित होता है । यही कारण है कि संस्कृत और प्राकृत में साहित्य की जो विविध प्रवृत्तियाँ अग्रसर हो रही थीं, प्रायः वे ही प्रवृत्तियाँ कुछ रूपान्तरित होकर अपभ्रंश - साहित्य में भी प्रविष्ट हुईं। फलतः दोहा-गान के साथ-साथ प्रबन्धात्मक पद्धति भी अपभ्रंश में समादृत हुई। इस दृष्टि से चउमुह, द्रोण, ईशान, जोइंदु, स्वयम्भू, पुष्पदन्त, वीर, धनपाल आदि कवियों की अपभ्रंश रचनाएँ आदर्श उदाहरण हैं ।
784 :: जैनधर्म परिचय
अपभ्रंश-साहित्य : जैन - साहित्य का पर्यायवाची
यह तथ्य है कि अपभ्रंश-साहित्य के विकास में जैनाचार्यों का अभूतपूर्व योगदान रहा । गुण एवं परिमाण दोनों ही दृष्टियों से तो वह शाश्वत कोटि का और राजाओं, नगरसेठों तथा भट्टारकों के आश्रयदान के कारण सर्वाधिक विकसित लिखित है ही, बल्कि दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि अपभ्रंश-साहित्य अपनी प्रचुरता और विविधता के कारण जैन साहित्य का ही पर्यायवाची - जैसा हो गया ।
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