Book Title: Jain Dharm Parichay
Author(s): Rushabhprasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 800
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir माना जाता है, वस्तुतः इस ग्रन्थ ने श्रावकाचार के एक मानक ग्रन्थ-जैसी ख्याति प्राप्त की है। आचार्य अमृतचन्द्र कृत 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' ग्रन्थ (अपरनाम-जिनप्रवचनरहस्यकोश) भी इसी क्रम में एक महत्त्वपूर्ण संस्कृत ग्रन्थ है, जिसमें 226 संस्कृत पद्यों में चारित्र विषयक प्रमुख तत्त्वों के अतिरिक्त हिंसा-अहिंसा के सूक्ष्म स्वरूप का भी विवेचन किया गया है। इसी ग्रन्थ में जैन अनेकान्त-नीति को गोपी की उपमा के माध्यम से स्पष्ट किया गया है। इसका रचना-काल ई. 10-11वीं शती लगभग माना जाता है। श्रावकाचारप्रधान संस्कृत रचनाओं में आचार्य सोमदेव (ई.10) द्वारा रचित 'यशस्तिलकचम्पू' है, जिसके 5-8 आश्वासों में आचार का विस्तृत निरूपण है। इसी तरह आचार्य अमितगतिकृत 'श्रावकाचार' (ई. 1000 लगभग) तथा पं. आशाधर (ई. 13वीं) द्वारा रचित 'सागारधर्मामृत' ग्रन्थ प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं। इसी क्रम में गुणभूषण-कृत 'श्रावकाचार' (ई. 14-15) तथा राजमल्ल-रचित 'लाटीसंहिता' (17वीं शती ई.) आदि अनेकानेक कृतियाँ परिगणनीय हैं। मुनियों के आचार पर भी अनेक संस्कृत कृतियाँ प्रकाश में आयीं, जिनमें श्रीचामुण्डरायकृत (ई. 11वीं) 'चारित्रसार' (अपरनाम-भावनासारसंग्रह), आचार्य वीरनन्दी (ई. 12वीं) द्वारा रचित 'आचारसार' प्रमुख हैं। पं. आशाधर (ई. 13वीं) द्वारा रचित 'अनगारधर्मामृत' ग्रन्थ भी एक महत्त्वपूर्ण कृति है, जो मुनि-चारित्र का सांगोपांग निरूपण करती है। इसी पर ग्रन्थकार द्वारा ही रचित भव्यकुमुदचन्द्रिका नामक संस्कृत टीका तथा ज्ञानदीपिका नामक पंजिका उपलब्ध है, जो विषयवस्तु को स्पष्ट करने की दृष्टि से अत्यन्त उपादेय है। __जैन अध्यात्म-साधना जैन-आचार का सारभूत तत्त्व है। अत: इस विषय पर अनेकानेक संस्कृत ग्रन्थ रचे गये, जिनमें कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का उल्लेख यहाँ प्रस्तुत है। संस्कृत में अध्यात्मपरक ग्रन्थों की रचना का प्रारम्भ आचार्य पूज्यपाद (ई. 5वीं शती) द्वारा किया गया और उनके समाधिशतक' (समाधितन्त्र) व 'इष्टोपदेश', ये दो ग्रन्थ अध्यात्मयोग के प्रमुख सूत्रों को व्याख्यायित करते हैं। समाधिशतक में कुल 105 संस्कृत पद्य हैं और इष्टोपदेश में 51 पद्य। जैन ध्यान-योग द्वारा आत्मा बहिरात्मा से ऊपर उठकर 'अन्तरात्मा' की स्थिति में पहुँचे और फिर परमात्मा की स्थिति प्राप्त करे, इस साधना-सूत्र को साधक अन्तर्मुख होकर किस प्रकार क्रियान्वित करे, इसका निर्देश इन ग्रन्थों में है। निश्चय ही अपने पूर्ववर्ती आचार्य कुन्दकुन्द के मोक्षप्राभृत आदि प्राकृत-ग्रन्थों का प्रभाव भी इनमें परिलक्षित होता है। आचार्य पूज्यपाद के बाद जैन अध्यात्म-योग के सशक्त व्याख्याकार आचार्य हरिभद्र (ई.8) हुए, जिन्होंने प्राकृत व संस्कृत दोनों भाषाओं में योग-विषयक ग्रन्थ रचे हैं। संस्कृत साहित्य-परम्परा :: 791 For Private And Personal Use Only

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