Book Title: Jain Dharm Parichay
Author(s): Rushabhprasad Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 798
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विरोध हुआ कि संघ ने आचार्य सिद्धसेन से (पाराञ्चित) प्रायश्चित - स्वरूप 12 वर्षों तक गच्छ त्याग कर दुष्कर तपस्या करने को कहा गया। इसमें शर्त यह भी थी कि यदि इन साधना-वर्षों में धर्म-प्रभावना का कोई महनीय कार्य हो सके, तो अवधि पूर्ण होने से पहले भी उन्हें संघ में पुनः पदस्थापित किया जा सकता है, जिसके फलस्वरूप आचार्य सिद्धसेन को यह प्रायश्चित करना पड़ा। इसी अवधि में उनके द्वारा धर्म-प्रभावना का एक कार्य सम्पन्न हुआ, वह यह था कि उन्होंने उज्जयिनी के महाकाल मन्दिर में 'कल्याणमन्दिर स्तोत्र' का पाठकर शिव-लिंग का स्फोटन कर पार्श्वनाथ तीर्थंकर का बिम्ब प्रादुर्भूत कराया। इससे राजा विक्रमादित्य की जिन- शासन के प्रति अनुरक्ति बढ़ी। इस धर्म-प्रभावना के कारण सिद्धसेन को पुनः जैन संघ में समादृत स्थान प्राप्त हो सका । इन्हीं रूढ़िवादियों को लक्ष्य कर आचार्य सिद्धसेन ने (द्वात्रिंशति का - 6 / 2 ) कहा - " मैं पुरानी रूढ़ि (के विचारों) को ढोने के लिए पैदा नहीं हुआ हूँ, भले ही मेरे दुश्मनों की संख्या बढ़े।" इस घटना से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि दृढ़निश्चयी उदारमना आचार्य सिद्धसेन ने जो उक्त कदम उठाया, उसका संस्कृत को प्रतिष्ठित होने में काफी योगदान रहा है। जैन संस्कृत साहित्य - परम्परा के विकास की दृष्टि से आचार्य सिद्धसेन का उक्त योगदान अविस्मरणीय रहेगा । दिगम्बर परम्परा की मान्यता के अनुसार जैन आगमों का सर्वाधिक भाग कालक्रम से नष्ट हो गया, किन्तु ई. प्रारम्भिक शती में आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि ने अवशिष्ट आगम को लिपिबद्ध किया । इस पवित्र दिन को श्रुतपंचमी (ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी) के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त है । इसी क्रम में आचार्य गुणधर एवं अन्य आचार्यों ने 'कषायप्राभृत' की रचना की । दिगम्बर आगमों की भाषा प्रमुखतः शौरसेनी प्राकृत है। आचार्य पुष्पदन्त व आचार्य भूतबलि द्वारा रचित 'षट्खण्डागम' आगम पर आचार्य वीरसेन ने धवला टीका लिखी, जो संस्कृत - प्राकृत मिश्रित थी । दिगम्बर परम्परा में संस्कृत को व्याख्या -ग्रन्थों में स्थान देने का यह प्रथम प्रयास था। उधर श्वेताम्बर आगमों पर सर्वप्रथम टीका चूर्णि जो लिखी गयीं, वे भी संस्कृत - प्राकृत मिश्रित थीं। इन चूर्णिकारों में अगस्त्य सिंह स्थविर (वि. तीसरी शती) तथा जिनदास गणी महत्तर (ई. छठी शती) के नाम उल्लेखनीय हैं। प्रख्यात विद्वान् डॉ. हीरालाल जैन के मत में धवला की रचना के समय तक कर्मसिद्धान्त के व्याख्यान में तो प्राकृत का ही माध्यम स्वीकृत था, किन्तु दर्शन व न्याय विषयक विवेचन में संस्कृत को माध्यम रूप में अपनाया जाने लगा था। उक्त उदारवादी दृष्टिकोण के द्योतक अनेक वचन प्राचीन जैन साहित्य में प्राप्त होते हैं। 'अनुयोगद्वार सूत्र' आदि में संस्कृत व प्राकृत दोनों को ऋषिभाषित कहकर समान आदर व्यक्त किया गया, जो तत्कालीन समन्वय-दृष्टि का सूचक है। नौवीं शती संस्कृत साहित्य - परम्परा :: 789 For Private And Personal Use Only

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