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ई. तक जैन परम्परा में प्रौढ़ चिन्तन के लिए संस्कृत की उपादेयता सर्वस्वीकृत हो चुकी थी। सिद्धर्षि (ई. 9-10) ने अपने ग्रन्थ 'उपमितिभवप्रपंच कथा' (1/51-52) में स्पष्ट कहा-"संस्कृत व प्राकृत ये दोनों भाषाएँ साहित्य-रचना की दृष्टि से प्रधान हैं, किन्तु इनमें संस्कृत भाषा प्रौढ़ विद्वानों के हृदय में बैठी हुई है, उनके लिए सरल बालसुबोध्य प्राकृत भाषा उतनी हृदयहारिणी नहीं होती।"
उपर्युक्त पृष्ठभूमि के आधार पर यह स्पष्ट हो गया है कि जैन परम्परा में संस्कृत के प्रवेश के पीछे क्या-क्या तत्कालीन परिस्थितियाँ थीं...जैन आचार्यों द्वारा साहित्य की विविध विधाओं में रचित साहित्य की सुदीर्घ व समृद्ध परम्परा का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
जैन दर्शन, जैन आचार व जैन साधना ___जैन परम्परा में संस्कृत को विद्वज्जनभोग्य मानकर जैन-तत्त्व-ज्ञान, जैन-आचार और जैन अध्यात्म-साधना आदि विषयों पर प्रचुर मात्रा में संस्कृत ग्रन्थों की रचना हुई है। जैन दर्शन व तत्त्वज्ञान का सर्वप्रथम संस्कृत-ग्रन्थ 'तत्त्वार्थसूत्र' (मोक्षशास्त्र) उपलब्ध है, जिसके रचयिता आचार्य उमास्वामी या उमास्वाति हैं। इसका रचना काल ई. दूसरी शती (लगभग या कुछ परवर्ती) माना जाता है। यही एक ऐसा मौलिक ग्रन्थ है, जिस पर दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं की श्रद्धा है, यद्यपि दोनों परम्पराओं ने मामूली पाठ-भेदों के साथ इस पर व्याख्या प्रस्तुत की है। सूत्रात्मक यह ग्रन्थ दस अध्यायों में विभक्त है और जैन दर्शन के मूलभूत सात तत्त्वों (जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा व मोक्ष) का आगमिक धारा के अनुरूप विधिवत् निरूपण करता है। लोकप्रियता व व्यापक प्रचार-प्रसार की दृष्टि से इसका अत्यन्त महत्त्व है। दिगम्बर परम्परा में इस पर आचार्य पूज्यपाद देवनन्दी (ई.5) द्वारा कृत 'सर्वार्थसिद्धि', आचार्य अकलंक (ई.8) द्वारा रचित 'तत्त्वार्थराजवार्तिक' तथा आचार्य विद्यानन्दि (ई.9) द्वारा रचित 'तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक'- ये टीकाएँ प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं। श्वेताम्बर परम्परा में 'तत्त्वार्थभाष्य' (स्वोपज्ञ भाष्य) तथा आचार्य सिद्धसेन गणि-रचित टीकाएँ प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं। परवर्तीकाल में भी अनेक टीकाएँ लिखी जाती रहीं। इस ग्रन्थ से प्रेरित होकर, प्रमुख जैन आचार्य अमृतचन्द्र (ई. 10-11) ने 'तत्त्वार्थसार' नामक स्वतन्त्र संस्कृतपद्यात्मक रचना की है। ___ परवर्तीकाल में जैन आचार (श्रावक व साधु की चर्या) पर अनेकानेक संस्कृत कृतियों की रचना की गयी, जिनमें आचार्य समन्तभद्र द्वारा विरचित 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' है, जिसमें 150 श्लोकों में सम्यक्त्व व चारित्र के सभी पक्षों, विशेषकर गृहस्थ-चर्या के स्वरूप को सम्यक्तया प्रतिपादित किया गया है। इसका रचना-काल ई. दूसरी शती
790 :: जैनधर्म परिचय
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