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शब्दानुशासन लिखा है, वह उदीच्या-भाषा ही है। प्राच्या-भाषा, उदीच्या की दृष्टि से असंस्कृत एवं अशुद्ध थी, क्योंकि उस पर मुण्डा और द्रविड़-जैसी लोक-भाषाओं का पर्याप्त प्रभाव था। व्रात्यों की निन्दा जहाँ उनके यज्ञ-यागादि में आस्था न रहने के कारण की गयी थी, वहीं उनकी देश्यभाषा भी एक कारण था। अतः यह स्वीकार करना पड़ेगा कि छान्दस्-युग में देश्य-भाषा की एक क्षीण-धारा प्रवाहित हो रही थी, जो आगे चलकर प्राकृत के नाम से विख्यात हुई।
कुछ विद्वानों की यह भी मान्यता है कि छान्दस् के समानान्तर कोई जन-भाषा अवश्य थी और यही जन-भाषा परिनिष्ठित साहित्य के रूप में वेदों में प्रयुक्त हुई। महर्षि पाणिनि ने व्याकरण के नियमों द्वारा संस्कृत को अनुशासित कर लौकिक संस्कृतभाषा का रूप उपस्थित किया। पाणिनि के व्याकरण से यह भी स्पष्ट है कि छान्दस् की प्रवृत्तियाँ वैकल्पिक थी। अतः उन्होंने इन विकल्पों का परिहार कर एक सार्वजनीन मान्य-रूप उपस्थित किया। वेद की वैकल्पिक विधियाँ अपने मूलरूप में बराबर चलती रहीं। जिनके ऊपर पाणिनीय-तन्त्र का अंकुश नहीं रहा और वे विकसित प्रवृत्तियाँ प्राकृत के नाम से पुकारी जाने लगीं। प्राच्या : देश्य अथवा प्राकृत की मूल-स्रोत
प्राच्या, जो कि 'देश्य' या 'प्राकृत' की मूल है, उसका वास्तविक रूप क्या था, इसकी जानकारी नहीं मिलती। वर्धमान महावीर एवं गौतम बुद्ध के उपदेशों की भाषाप्राकृत भी आज मूलरूप में उपलब्ध नहीं। उसका जो रूप आज निश्चित रूप से उपलब्ध है, वह है प्रियदर्शी सम्राट अशोक के शिलालेखों की भाषा। इन शिलालेखों की भाषा में भी एकरूपता नहीं है। उनमें विभिन्न वैभाषिक प्रवृत्तियाँ सन्निहित हैं। प्राकृत के विविध रूप एवं उनका साहित्य
उक्त शिलालेखों का प्रथम-रूप पूर्व की स्थानीय बोली है, जो कि अशोक की राजधानी पाटलिपुत्र में व्यवहार में लाई जाती थी और जिसे उसके साम्राज्य की 'अन्तःप्रान्तीय-भाषा' कहा जा सकता है। दूसरा रूप उत्तर-पश्चिम की स्थानीय बोली है, जिसका अत्यन्त प्राचीन स्वरूप उक्त शिलालेखों में सुरक्षित है। एक प्रकार से इसी भाषा को साहित्यिक प्राकृत का मूलरूप कहा जा सकता है। तीसरा रूप पश्चिम की स्थानीय बोली है, जिसका रूप हिन्दुकुश-पर्वत (वर्तमान पाकिस्तान) के आसपास से एवं विन्ध्याचल के समीपवर्ती प्रदेशों में माना गया है। भाषा-शास्त्रियों का ऐसा अनुमान है, कि यह पैशाची-भाषा (प्राकृत) रही होगी अथवा इसी से पैशाची-भाषा का विकास हुआ होगा।
778 :: जैनधर्म परिचय
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