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4. देखो - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग 3, पृष्ठ 197
5. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान, पृष्ठ 71
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एवं 499
6. डॉ. प्रेमसागर जैन, जैन शोध और समीक्षा, पृष्ठ 40
7. कवि वृन्दावनदास कृत सुमतिनाथ तीर्थंकर पूजा, जयमाता, छन्द 1 व 3
8. प्रकाशक- भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, सन् 2003
9. दौलत विलास, पद 28, भारतीय ज्ञानपीठ नयी दिल्ली
10. जिनसहस्रनाम स्तोत्र, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ 408
11. शुद्ध अर्थात् वीतराग । बुद्ध अर्थात् सर्वज्ञ ।
12. पं. आशाधर, सागार धर्मामृत, 2/44
13. " शशि शान्तिकरण तपहरन हेत । स्वयमेव तथा तुम कुशल देत ।" - कविवर दौलतराम, देवस्तुति (दौलतविलास, पृष्ठ )
14. आचार्य समन्तभद्र, स्वयम्भू स्रोत, वासुपूज्य स्तवन, छन्द 2
15. आचार्य हेमचन्द्रसूरि, स्याद्वादमंजरी, प्रस्तावना, पृष्ठ 7
16. कविवर जुगलकिशोर मुख्तार, मेरी भावना, छन्द 1 17. भगवती आराधना, विजयोदया टीका, गाथा 46
18. आचार्य कुन्दकुन्द, प्रवचनसार, गाथा 80
19. शान्तिपाठ भाषा, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ 161
776 :: जैनधर्म परिचय
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20. धवला, पुस्तक 9, खण्ड 4, भाग 1, सूत्र 55, पृष्ठ 293 में द्वादशांग के स्वाध्याय को भी स्तुति कहा है । यथा - " बारसंग... । तम्हि जो उवओगो वायण-पुच्छणपरियट्टणाणुवेक्खणसरूवो सो वि थओवयारेण । " अर्थात् द्वादशांग रूप जिनवाणी में बाँचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा रूप उपयोग लगाना भी उपचार से स्तव (स्तुति) है ।
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