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“भवबीजाङ्कुरजननाः रागाद्याः क्षयमपुगताः यस्य। ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ।। " 15
जिसने राग-द्वेष- कामादिक जीते सब जग जान लिया। सब जीवों को मोक्षमार्ग का निस्पृह हो उपदेश दिया । बुद्ध - वीर - जिन - हरि-हर-ब्रह्मा या उसको स्वाधीन कहो । भक्तिभाव से प्रेरित हो यह चित्त उसी में लीन रहो।।"
जैनधर्म में भक्ति की परिभाषा ही गुणानुराग है
"अर्हदादिगुणानुरागो भक्ति: ।
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जिन जिनेन्द्र, अर्हत्, अरिहंत आदि भी कोई व्यक्ति विशेष या उसके नाम विशेष नहीं है, अपितु जिस भी जीव ने अपने मोह - राग- -द्वेषादि विकारों को या इन्द्रियासक्ति को जीत लिया है और जिन्होंने वीतरागतादि गुणों को प्राप्त कर लेने के कारण पूज्यता को प्राप्त कर लिया है, उसे ही जिन, जिनेन्द्र, अर्हत् या अर्हन्त आदि कहा गया है। 'भक्ति' की परिभाषा में आगत 'गुणानुराग' पद का अर्थ भी वास्तव में उनके गुणों को जानना, पहचानना और उन्हें प्राप्त करने का पुरुषार्थ करना ही समझना चाहिए, क्योंकि जैनधर्म में अन्धभक्ति या कोरी भावुकतापूर्ण भक्ति नहीं होती, अपितु उसमें पूर्ण जागृत विवेक भी होता है और वह किसी-न-किसी रूप में हमारे मोह-रागद्वेष को क्षय करने में उपयोगी अवश्य बनती है। आचार्य कुन्दकुन्द देव ने भी यही कहा है
"जो जाणदि अरिहंतं, दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं । सो जाणदि अप्पाणं, मोहो खलु जादि तस्स लयं ।। 8
अर्थ-जो अर्हन्त को द्रव्यत्व, गुणत्व और पर्यायत्व के द्वारा जानता है, वह अपने आत्मा को जान लेता है और उसका मोह अवश्य नष्ट हो जाता है।
अन्त में, निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते हैं कि
1. जैन भक्ति सिद्धान्त को समझने के लिए चार विषयों का ज्ञान अनिवार्य हैस्तुत्य, स्तोता, स्तुति एवं स्तुतिफल ।
2. जैनधर्म के अनुसार मात्र वीतराग - सर्वज्ञ परमात्मा ही स्तुत्य (उपास्य) है, अन्य जो मोह - राग-द्वेष - अज्ञान आदि विकारों से सहित है, स्तुत्य नहीं हो सकता । हाँ, वीतराग - सर्वज्ञ जिनेन्द्र देव की वाणी, उनकी प्रतिमा, आचार्य-उपाध्यायसाधु परमेष्ठी और तीर्थस्थानादि वीतरागता - सर्वज्ञता के साधक निमित्त भी स्तुत्य माने गए हैं।
774 :: जैनधर्म परिचय
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