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सुख की प्राप्ति 'स्तुति-फल' है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनधर्म के अनुसार स्तुत्य (आराध्य) तो केवल एक वही है जो मुक्त (जन्म-मरण से रहित) एवं पूर्णतया शुद्ध-बुद्ध अर्थात् वीतराग-सर्वज्ञ" परमात्मा है, क्योंकि स्तुति का प्रयोजन (फल) मोक्ष (स्वयं भी पूर्ण शुद्ध-बुद्ध हो जाना) है। ___ इस दृष्टि से यद्यपि अर्हन्त-सिद्ध परमात्मा ही वास्तव में स्तुत्य हैं, किन्तु जैन कवियों ने अपने भक्तिकाव्य में इनके अतिरिक्त कतिपय अन्य को भी प्रयोजनवशात् अपनी स्तुति/भक्ति का विषय बनाया है। जैसे1. वीतराग-सर्वज्ञ परमात्मा की वाणी भी स्तुत्य है, क्योंकि वह भी भक्त को
शुद्ध-बुद्ध होने का मार्ग समझाती है। जिनवाणी की पूजा भी प्रकारान्तर से जिन भगवान की ही पूजा है। यथा
"ये यजन्ते श्रुतं भक्त्या ते यजन्तेऽञ्जसा जिनम्।
न किञ्चिदन्तरं प्राहुराप्ता हि श्रुतदेवताः।।12 2. वीतराग-सर्वज्ञ परमात्मा के मार्ग पर तेजी से चलने वाले आचार्य, उपाध्याय
साधु भी स्तुत्य हैं, क्योंकि वे उन्हीं के प्रतिबिम्ब स्वरूप हैं और वे हमें
मोक्षमार्ग पर चलने हेतु साक्षात् रूप से प्रेरक सिद्ध होते हैं। 3. जिनचैत्य (प्रतिमा) और जिनचैत्यालय भी स्तुत्य हैं, क्योंकि उनके माध्यम
से हम वीतराग-सर्वज्ञ परमात्मा की आराधना सुगमता से कर पाते हैं। 4. तीर्थस्थान भी स्तुत्य हैं, क्योंकि वहाँ पर हमारा उपयोग वीतरागता-सर्वज्ञता
की आराधना में विशेष लगता है। इसी प्रकार कुछ अन्य बिन्दु भी हमारी स्तुति के विषय बने हैं, परन्तु चरम लक्ष्य के रूप में से तो पूर्ण शुद्ध-बुद्ध, जन्म-मरण रहित मुक्त परमात्मा ही जैन स्तुति का मुख्य विषय है।
दरअसल, जैनदर्शन के अनुसार इस लोक में अनन्त आत्माएँ हैं और वे सभी समान एवं स्वतन्त्र हैं। सभी आत्माएँ अनादिकाल से अशुद्ध स्वर्ण-पाषाण के समान मोहराग-द्वेषादि विकारों से सहित भी हैं। __ ऐसी स्थिति में जो आत्मा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र अपनाकर अपने मोह-रागद्वेषादि विकारों को पूर्णतः नष्ट कर देता है और पूर्ण शुद्ध-बुद्ध मुक्त हो जाता है, वही वास्तव में हमारी चरम स्तुति का विषय होता है; क्योंकि उससे हमें स्वयं भी अपने विकारों को नष्ट कर शुद्ध-बुद्ध बनने की प्रेरणा या शिक्षा मिलती है।
यद्यपि वह शुद्ध-बुद्ध परमात्मा पूर्णत: वीतराग होने से भक्त को शुद्ध-बुद्ध बनने में किसी भी प्रकार की कोई सहायता नहीं करता, किञ्चित् शिक्षा या प्रेरणा भी साक्षात्
772 :: जैनधर्म परिचय
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