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प्राकृत-अपभ्रंश साहित्य-परम्परा
प्रो. राजाराम जैन
देश-विदेश के प्राच्यविद्याविदों के अनुसार भारतीय वाङ्मय का उष:काल वैदिक-काल में उन साधक तपस्वियों की वाणी से प्रारम्भ होता है, जिन्होंने उषासुन्दरी के लावण्य को परखा और सराहा था। प्रकृति की कोमल और रौद्र-शक्तियों ने कौतूहल और आश्चर्य से जन-मन को भर दिया था। अत: उन्होंने आशा-निराशा, हर्ष-विषाद एवं सुख-दुःख सम्बन्धी उद्गारों को अलंकृत-वाणी में सँजोकर प्रकट किया और इसके समकालीन ग्रन्थ ऋग्वेद में प्राच्य भारतीय भाषा और साहित्य की प्रथम-रेखा अंकित हुई।
ऋग्वेद की भाषा छान्दस् थी। अथर्ववेद की भी भाषा छान्दस् थी; किन्तु इन दोनों (ऋग्वेद और अथर्ववेद) की छान्दस्-भाषा में पर्याप्त अन्तर है। कुछ भाषा-शास्त्रियों का अभिमत है कि ऋग्वेद की भाषा ब्राह्मण-साहित्य की संस्कृत में ढली हुई एक सुनिश्चित परम्परा-सम्मत है, जब कि अथर्ववेद की भाषा समकालीन जन-भाषा मिश्रित है और इसके साहित्य में पर्याप्त लोक-तत्त्व भी पाये जाते हैं। इस कारण गवेषकों के अनुसार आर्य-भाषा और आर्य-साहित्य पर द्रविड़ एवं मुण्डा-वर्ग की भाषा तथा साहित्य का प्रभाव पर्याप्त रूप में पड़ा है और अथर्ववेद इसी प्रभाव को अभिव्यक्त कर रहा है।
आर्यों के सामाजिक विकास के साथ-साथ बोलचाल की भाषा भी परिवर्तित होती रही। इस कारण ध्वन्यात्मक एवं पद-रचनात्मक दृष्टि से उसमें पर्याप्त विकास होता रहा। ब्राह्मण एवं उपनिषद्-काल में वैभाषिक प्रवृत्तियाँ स्पष्टतः परिलक्षित होती हैं। वैदिक-काल पर प्राच्य जन-भाषा का इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि जिससे ब्राह्मणग्रन्थों ने असंस्कृत तथा अशुद्ध प्राच्य-प्रभाव से अपने को सुरक्षित रखने की घोषणा की। कौषीतकी-ब्राह्मण में उदीच्य लोगों के उच्चारण की प्रशंसा की गयी है और उन्हें भाषा की शिक्षा में गुरु भी माना गया है। छान्दस्-युगीन देश्य-भाषा ही प्राकृत थी
महर्षि पाणिनि (ईसा-पूर्व छठी सदी के आसपास) ने जिस संस्कृत-भाषा का
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