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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org 4. देखो - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग 3, पृष्ठ 197 5. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान, पृष्ठ 71 - एवं 499 6. डॉ. प्रेमसागर जैन, जैन शोध और समीक्षा, पृष्ठ 40 7. कवि वृन्दावनदास कृत सुमतिनाथ तीर्थंकर पूजा, जयमाता, छन्द 1 व 3 8. प्रकाशक- भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, सन् 2003 9. दौलत विलास, पद 28, भारतीय ज्ञानपीठ नयी दिल्ली 10. जिनसहस्रनाम स्तोत्र, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ 408 11. शुद्ध अर्थात् वीतराग । बुद्ध अर्थात् सर्वज्ञ । 12. पं. आशाधर, सागार धर्मामृत, 2/44 13. " शशि शान्तिकरण तपहरन हेत । स्वयमेव तथा तुम कुशल देत ।" - कविवर दौलतराम, देवस्तुति (दौलतविलास, पृष्ठ ) 14. आचार्य समन्तभद्र, स्वयम्भू स्रोत, वासुपूज्य स्तवन, छन्द 2 15. आचार्य हेमचन्द्रसूरि, स्याद्वादमंजरी, प्रस्तावना, पृष्ठ 7 16. कविवर जुगलकिशोर मुख्तार, मेरी भावना, छन्द 1 17. भगवती आराधना, विजयोदया टीका, गाथा 46 18. आचार्य कुन्दकुन्द, प्रवचनसार, गाथा 80 19. शान्तिपाठ भाषा, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ 161 776 :: जैनधर्म परिचय Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 20. धवला, पुस्तक 9, खण्ड 4, भाग 1, सूत्र 55, पृष्ठ 293 में द्वादशांग के स्वाध्याय को भी स्तुति कहा है । यथा - " बारसंग... । तम्हि जो उवओगो वायण-पुच्छणपरियट्टणाणुवेक्खणसरूवो सो वि थओवयारेण । " अर्थात् द्वादशांग रूप जिनवाणी में बाँचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा रूप उपयोग लगाना भी उपचार से स्तव (स्तुति) है । For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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