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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3. जैन-भक्ति व्यक्तिविशेष या नामविशेष को महत्त्व नहीं देती, अपितु वीतरागतादि ___ गुणों को विशेष महत्त्व देती है। गुणानुराग का ही नाम भक्ति है। 4. स्तुत्य स्वरूप परमात्मा पूर्णतः राग-द्वेष-रहित होने के कारण पूजक-निन्दक का कुछ भी भला-बुरा नहीं करते। पूजक-निन्दक अपने भावों के कारण स्वयमेव वैसा फल प्राप्त करते हैं। 5. परमात्मा के गुणस्तवन रूप भक्ति से भक्त को सहज ही वीतरागतादि उत्तम गुणों की प्राप्ति होती है। यद्यपि वीतरागतादि गुणों की प्राप्ति में भी परमात्मा भक्त की कोई साक्षात् सहायता नहीं करते हैं, उसे किसी प्रकार की कोई प्रेरणा भी नहीं देते. परन्तु भक्त उनके गुणों के स्मरण-चिन्तन से महान् प्रेरणा प्राप्त करता है और फिर पूर्ण वीतरागतादि गुणों की प्राप्ति में भी सफल हो जाता है। 6. जैनधर्म के अनुसार भक्ति का प्रयोजन किसी भी प्रकार का कोई भय या आशा नहीं है, अपितु वीतराग-सर्वज्ञ परमात्मा के प्रति भक्त के हृदय में सहज ही उत्पन्न हुआ ऐसा आदर-बहुमान का भाव है, जो उसे आत्मस्वरूप की पहचान कराकर उसके मोह-राग-द्वेष-अज्ञानादि विकारों के क्षय का हेतु बनता है। 7. जैनधर्म में भक्ति की अधिकता (अन्धभक्ति) का नहीं, अपितु उसकी समीचीनता का महत्त्व है (सम्यक् प्रणम्य)। समीचीन भक्ति ही श्रेष्ठ/सार्थक भक्ति कही गयी है, तथा समीचीन भक्ति के लिए सर्वप्रथम परमात्मा को स्वरूपतः भली भाँति जानना आवश्यक कहा है। 8. जैनधर्म के अनुसार परमात्मा की भक्ति-स्तुति का अन्तिम फल स्वयं भी शुद्ध बुद्ध परमात्मा बन जाना है। अनन्त काल तक भगवान का दास ही बने रहने की कामना जैन-भक्ति में नहीं की जाती है-"तौलौं सेॐ चरण जिनके, मोक्ष जौलौं न पाऊँ।"19 अर्थात्-हे जिनेन्द्र! मैं तब तक आपके चरणों की सेवा करूँ, जब तक कि मोक्ष प्राप्त न कर लूँ। 9. जैनधर्म के अनुसार परमात्मा की भक्ति-स्तुति के अनेक रूप हो सकते हैंदर्शन, पूजन, नति, विनति, प्रणति, पूजन, जप, तप, ध्यान, स्वाध्याय, इत्यादि। कोई भी भक्त अपने हिसाब से किसी भी रूप के द्वारा परमात्मा के गुणों को पहचानकर उनके प्रति अपने हृदय में आदर-बहुमान का भाव उत्पन्न कर स्वयं भी वीतराग-सर्वज्ञ बनने का पुरुषार्थ कर सकता है। सन्दर्भ 1. आचार्य पुष्पदन्त-भूतबलि, षट्खण्डागम, गाथा 1 2. आचार्य उमास्वामी, तत्त्वार्थसूत्र, मंगलाचरण 3. देखो-जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग 3, पृष्ठ 197 भक्तिकाव्य :: 775 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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