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मांगलिक कार्य करके अयोध्यापुरी के बीच में जिनमन्दिर की रचना की थी। प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ भगवान के जन्म के पहले ही नगर, भवन एवं दीक्षाग्रहण के पूर्व देवकृत कृत्रिम जिनालय का निर्माण हो गया था। मनुष्यकृत कृत्रिम जिनालय सर्वप्रथम भरत चक्रवर्ती ने कैलाश पर्वत पर भूत, भविष्य और वर्तमान के अर्हन्त तीर्थंकरों के अलग-अलग जिनमन्दिरों के रूप में बनवाये थे। अतः लगभग एक कोड़ाकोड़ी सागर पूर्व मनुष्यों द्वारा कृत्रिम जिनालयों का निर्माण प्रारम्भ हो गया था। तदुपरान्त चक्रवर्ती, बलभद्र, महामण्डलेश्वर, मण्डलेश्वर, मुकुटबद्ध राजा, श्रावक एवं समाज द्वारा नगर, उपनगर, तीर्थक्षेत्रों आदि में मन्दिर-निर्माण अनेक प्रकार से हुआ। जैसे-गुफामन्दिर, भौंहरे मन्दिर, उपनगर, तीर्थक्षेत्रो आदि पर मन्दिर निर्माण अनेक प्रकार से हुआ। जैसे-गुफामन्दिर, भौंहरे मन्दिर, बाबनजिनालय, मेरुमन्दिर, समवसरण मन्दिर, चौबीसी जिनालय, गृह चैत्यालय आदि। 160 ईस्वी पूर्व कुरुवंश के राजा खारवेल ने गुफामन्दिर का निर्माण कलिंगदेश में करवाया, जो समकालीन मन्दिरों में सर्वाधिक प्राचीन माना जाता है। वास्तु और जैनागम
वास्तु-विद्या तीर्थंकर भगवान के मुखकमल से निर्गत, गणधरदेव द्वारा रचित बारह अंगों और चौदह पूर्व में ही समाहित है। द्वादशांग के बारहवें अंग के पाँच अधिकार हैं__ 1. परिकर्म, 2. सूत्र, 3. प्रथमानुयोग, 4. पूर्वगत, 5. चूलिका।
चूलिका के पाँच भेद हैं-1. जलगता, 2. स्थलगता, 3. मायागता, 4. रूपगता, 5. आकाशगता। इनमें स्थलगता चूलिका 20989200 पदों द्वारा पृथ्वी के भीतर गमन करने के कारणभूत मन्त्र, तन्त्र और तपश्चरण आदि तथा वास्तु-विद्या एवं भूमि-सम्बन्धी शुभ व अशुभ कारणों का वर्णन करती है।" वास्तुविद्या प्राचीनतम विद्या है, इसकी विषयवस्तु जैनागम साहित्य में प्रचुरता से प्राप्त होती है। भगवान् आदिनाथ ने अपने पुत्रों को अनेक शास्त्रों का अध्ययन कराया था, उसमें अनन्तविजय नामक पुत्र को चित्रकला के शास्त्र एवं सूत्रधार की विद्या तथा मकान बनाने की विद्या का उपदेश दिया था। इस विद्या के प्रतिपादक शास्त्रों में अनेक अध्यायों का विस्तार था तथा उसके अनेक भेद थे। कल्पवृक्षों के समाप्त होने पर आजीविका हेतु भगवान् आदिनाथ ने लोगों को विदेहक्षेत्र की परम्परानुसार षट्कर्म करने का उपदेश दिया था। उसमें शिल्पकर्म द्वारा मन्दिर और गृह बनाने का उपदेश दिया था।ए जैनागम में वास्तु-विज्ञान का वर्णन अनादि-काल से प्राप्त है।
मन्दिर-वास्तु
जैनागम साहित्य में अकृत्रिम जिनालयों के विस्तार का कथन है। यह-सब वास्तुशास्त्र
, 714 :: जैनधर्म परिचय
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