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तथा शरणागत -जैसे भाव उत्पन्न होते हैं। मन्दिर का शान्त ऊर्जामय वातावरण मन की चंचल गति को स्थिरता देता है। अनायास ही हमारे मन में भगवान् की भक्ति, अनुराग तथा उनके गुण-ग्रहण करने की भावना होती है।
कर्मोदय और वास्तुशास्त्र
क्षेत्र, काल, भव और पुद्गल का निमित्त पाकर कर्मों का उदय होता है। इन कर्मनिमित्तों का प्रभाव कर्मोदय को प्रभावित करता है। कर्मोदय में वास्तु (गृह) भी निमित्त बनता है। हम हमेशा अशुभ निमित्त हटाते हैं और शुभ निमित्त जुटाते हैं। अशुभ वास्तु कर्मोदय में अशुभ निमित्त बनता है, क्योंकि कारण के अनुरूप ही कार्य होता है।" उदासीन, प्रेरक निमित्त, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव सभी कारणों को कार्योत्पत्ति में कारण मानना चाहिए। समवसरण में अशुभ कर्म प्रकृतियाँ शुभ रूप, नरकों में शुभ प्रकृतियाँ अशुभ रूप एवं स्वर्गादिक में अशुभ प्रकृतियाँ शुभ रूप संक्रमित होकर उदय में आती हैं, अत: क्षेत्रादि का प्रभाव मन पर पड़ता है, ये भावों को शुद्धाशुद्ध करते हैं एवं कर्मोदय भी बाहरी परिवेश से प्रभावित होता है अर्थात् वास्तुशास्त्रानुकूल गृहों का निर्माण कर उनमें रहने वालों के मन को विशुद्ध बनाने में साधक बनाया जा सकता है, क्योंकि कार्यों को कारण ही बनाते हैं और कारणों में पड़ी हुई सामर्थ्य निमित्त कार्यों का उपजा देती हैं।" कर्मों के उदय बदले जा सकते हैं। कर्मों में संक्रमण, विसंयोजन, उदीरणा, प्रदेशोदय हो जाते हैं। मध्य में ही आयु का अपवर्तन हो सकता है, पुण्य कर्म पाप बन जाता है, पाप भी पुण्य रूप हो सकता है। जैसे–कारण मिलेंगे, वैसे ही कार्य होंगे। निमित्त-नैमित्तिक कर्मों की शक्ति अचिन्त्य है। उदय के लक्षण में यानी कर्मों के फल देने में भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों को निमित्त कारण स्वीकार किया है।" कर्मोदय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव के निमित्त से होता है, अत: निमित्तों में परिवर्तन कर कर्मोदय में परिवर्तन किया जा सकता है। जैसे लोभ उत्पन्न करने वाली सामग्री का सान्निध्य टालकर और निर्लोभ की प्रेरणा देने वाले निमित्तों का आश्रय लेकर लोभ के उदय को टाला जा सकता है। वर्तमान में प्राप्त सामग्री को मनुष्य अपने पुरुषार्थ द्वारा प्रतिकूल से अनुकूल करता है, जबकि विपरीत पुरुषार्थ से अनुकूलता भी प्रतिकूलता में परिवर्तित हो जाती है। वास्तु-विज्ञान में ऐसी ही पुरुषार्थ क्रियाओं का विस्तृत विवेचन किया गया है। जिससे यह ज्ञात होता है कि उपलब्ध वास्तु-संरचना हमारे लिए हितकर है अथवा नहीं। यह भी जानना आवश्यक है कि वास्तु में प्रतिकूलसंरचना को कैसे अनुकूल किया जाए। कर्मफलानुसार प्राप्त वास्तु-संरचनाओं को विज्ञानसम्मत, वास्तुशास्त्र से पुरुषार्थपूर्वक अपने अनुकूल बनाकर जीवन सुखी कैसे बनाएँ?A3
विकल कारण से कार्य नहीं होता, किन्तु सम्पूर्ण अविकल कारणों से कार्य उपजता है। क्षेत्र निमित्त से नरकों में पर-पीड़ा पहुँचाने के विचार होते रहते हैं। तीर्थस्थान,
जिनमन्दिर एवं गृह-वास्तु :: 721
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