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और सभ्यता का उत्स भारत था।
भारत के ऐतिहासिक उत्खनन से हमें जो सामग्री प्राप्त हुई है, उसमें ऋषभ की कायोत्सर्ग मुद्रा की मूर्तियाँ तथा सिर पर पॉच फण वाली सुपार्श्वनाथ की पाषाण मूर्तियाँ तो मिली है, किन्तु यज्ञ की सामग्री की प्रतिलिपियाँ और यज्ञ कुंड आदि नहीं मिले। इससे ऐसा लगता है कि प्रारम्भ में जनता मूर्ति उपासक तो थी, पर यज्ञ धर्मी नहीं थी और बाद में कुछ केवल मूर्ति उपासक रह गये, कुछ केवल यज्ञ कर्मी और केवल मूर्ति उपासक व यज्ञ कर्मी भी बन गये। कुल मिलाकर आज सम्पूर्ण विश्व से जो हमें ऐतिहासिक सामग्री मिलती है, उससे विदेशों में जैनधर्म की निम्न स्थितियाँ देखने को मिलती हैं:
1. जैनधर्म से आकृष्ट होकर जो लोग जैनधर्म की जीवन पद्धति को यहाँ से सीख कर गये उसके आधार पर उन्होंने अपने यहाँ जैन धर्म फैलाया।
2. जो लोग विभिन्न युद्धों, कलहों के कारण अपने मूल स्थान से उछिन्न होकर गये उनके द्वारा भी जैनधर्म से सम्बन्धित प्रतीकों को विदेश की धरती पर पहुँचाया गया।
3. मध्योत्तर काल में जैन धार्मिकों में बहुतेरे व्यापार प्रधान हो गये और वे आजीविका के निमित्त, व्यापार के निमित्त विदेशों में गये और वहाँ उन्होंने अपनी धर्म संस्कृति की रक्षार्थ धर्म प्रतीक बनाये।
4. कुछ जैन परिराजक भी अपने वृजन कर्म के दौरान सुदूर चले गये और उन्होंने जनता में जैनधर्म के संकेतों को/प्रतीकों को स्थापित किया।
विदेशों में जैनधर्म शीर्षक पर विचार करते समय आज सवाल यह भी उठ सकता है कि हम विदेश किसे माने। प्राचीन काल के भारत से बाहर के देशों को विदेश माने या उन्हें मानते हुए वृहत्तर भारत के उन देशों को भी विदेश में गिने जो आज के भारत से बाहर हैं। या फिर केवल बृहत्तर भारत के बाहर के देशों को विदेश में गिनें। कुल मिलाकर इन तीनों प्रकार के स्थानों में हम जिसे भी विदेश माने, उस विदेश में जैनधर्म के सूत्र मिलते हैं। पर एक बात खास है कि जैनधर्म या जैन अनुयायी जहाँ भी गये, वहाँ उन्होंने अपनी अलग पहचान बनाए रखते हुए भी अन्य धर्मों पर आक्रमण का मार्ग कभी नहीं अपनाया। हाँ, कुछ ने अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष जरूर किए पर वे संघर्ष अपनी अस्तित्व की रक्षा के लिए थे दूसरों पर आक्रमण के लिए नहीं। इसलिए जहाँ भी संसार में जैन धर्मानुयायी रहे, उस देश के राजनैतिक व सामाजिक व्यवस्था को स्वीकारते हुए उन्होंने बड़े साम्य भाव से अपनी धर्म और संस्कृति की यथा सम्भव रक्षा की। इसलिए ऐसे सूत्र कहीं से नहीं मिलते कि जैनों के द्वारा धर्मयुद्ध हये हों। क्योंकि वे मानते हैं कि अगर आत्मा का साम्यभाव नष्ट हुआ तो आत्मधर्म ही नहीं बचेगा और जब आत्मधर्म ही नहीं बचेगा तो न यह लोक ठीक से रह पायेगा और न अगला लोक। कुल मिलाकर संकेत तो पूरे विश्व से किसी न किसी रूप में जैनधर्म के मिलते हैं पर उसका मूल उत्स निर्विवाद
विदेशों में जैनधर्म :: 739
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